एक लड़के को देखा तो ऐसा लगा … -1

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सभी पाठकों को हिमांशु बजाज का हृदय से प्रणाम! गुरू जी और अंतर्वासना पाठकों के साथ सम्बंध इतना गहरा हो चुका है कि ज्यादा दिन अब दूर रहा नहीं जाता. इसलिए एक बार फिर से पाठकों के समक्ष एक नई कहानी लेकर आया हूँ. सोच रहा था कि अपने ही जीवन की एक घटना आप लोगों के साथ साझा करूं, मगर एक पाठक की कहानी ने मेरा ध्यान अपनी तरफ आकर्षित कर लिया. इसलिए अपनी कहानी को अगली बार पेश करूंगा. फिलहाल आप इस कहानी का आनंद लें.

मेरा नाम रेहान है. यह मेरा असली नाम नहीं है इसलिए मैंने अपने लिए एक अच्छा सा मॉडर्न नाम चुनकर लिखा है जैसा कि अक्सर गे कम्यूनिटी में देखने को मिलता है. मेरी उम्र 19 साल हो चुकी है. मैं दिल्ली शहर का रहने वाला हूं. मुझे किसी और का तो पता नहीं लेकिन मैं अपने आत्मविश्वास पर पूरा घमंड रखता हूँ. मुझे काफी समय पहले से पता था कि मैं लड़कों में रूचि रखता हूँ और अपनी जिंदगी से मुझे कोई शिकायत भी नहीं है.

मैं अपनी जिंदगी को अपने तरीके से जीना चाहता हूँ. मुझे खुद पर बहुत भरोसा था कि मेरा गे होना किसी को पसंद हो न हो लेकिन मैं अपने आपको बहुत पसंद करता था. बात आज से साल भर पहले की है जब लंड की ललक मुझे ज्यादा ही परेशान करने लगी थी. आप समझ ही गए होंगे कि मैं बॉटम गे हूँ लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मेरी गांड में हर वक्त खुजली होती रहती है और मैं रंडियों की तरह जगह-जगह मुंह मारता फिरता रहता हूँ। हां इतना ज़रूर है कि जब कोई हैंडसम और सेक्सी सा लड़का मेरी आंखों के सामने आ जाता है तो मुझे कंट्रोल करना काफी मुश्किल हो जाता है लेकिन फिर भी मैं खुद को कंट्रोल में रख सकता हूँ।

मेरे साथ ऐसा कई बार हो चुका था कि अपने पसंद के लौंडे … नहीं, लौंडा शब्द तो मेरी पसंद नहीं है, लौंडे की जगह जवान मर्द कहूँ तो ज्यादा सही लगता है. मुझे 22 से 28 साल तक के जवान मर्द बहुत पसंद आते हैं. जब ऐसा कोई जवान मर्द मुझसे कहीं टकरा जाता था तो उसके जिस्म का अलग-अलग किस्म का रस पीने की चाहत मुझे उसके पीछे-पीछे ले चलती थी. कई बार तो लड़का पटाने में मैं कामयाब हो जाता था लेकिन कई बार कोई नकचढ़ा पलट कर भी नहीं देखता था. इसलिए फिर मैं भी कह देता था कि अंगूर खट्टे हैं.

वैसे तो दिल्ली जैसे शहर में गे होना बहुत आम सी बात है. अगर आप यहां पर अपनी गांड मटका कर चलते हैं या अपने कपड़ों या फैशन पर कुछ ज्यादा ही ध्यान देते हैं तो लोगों को समझते देर नहीं लगती कि आप किस कैटेगरी से संबंध रखते हैं. फिर आपकी बोल-चाल, आपका रहन-सहन, आपके यार-दोस्त और आपकी आदतें लोगों की नज़रों में इस बात को और पक्का कर देते हैं कि आप में और हिजड़ों में ज्यादा फर्क नहीं है.

ऐसा मेरा अनुभव है क्योंकि अभी भी समाज एल.जी.बी.टी की फुल फॉर्म तक नहीं जानता है. चाहे वह दिल्ली जैसा मॉडर्न शहर ही क्यों न हो. क्योंकि दिल्ली में सब लोग बाहर से ही तो आकर बसे हुए हैं. इसका अपना तो कुछ है नहीं. इसलिए हर तबके के लोग इस शहर को अपना बनाने की कोशिश करते हैं.

अब जब इतनी सारी जनसंख्या बाहर के दूसरे राज्यों से आकर रहेगी तो यहां की एक ही हांडी (मटकी) में पकने वाली खिचड़ी का स्वाद कैसा होगा इसका अंदाजा तो आप भी लगा ही सकते हैं. बाहर से तो यह हांडी देखने में बड़ी अच्छी दिखती है लेकिन इसमें जो भी कुछ पकता है उसका स्वाद तो इस खिचड़ी को चखने वाला ही बता सकता है न.

वैसे तो यहां लोगों को एक-दूसरे के सुख-दुख से ज्यादा कुछ लेना देना नहीं होता मगर एक-दूसरे की टांग खींचने में दिल्ली के लोग शायद सबसे आगे होंगे. पड़ोसी का लड़का पढ़ाई में कैसा है, बगल वाले की बेटी रात में किसके साथ आती है, ऊपर वाले फ्लोर पर रहने वाली आंटी का चक्कर किसके साथ चल रहा है. शर्मा जी की बीवी शर्मा जी की एक नहीं सुनती, वर्मा जी की वाइफ हर टाइम पार्लर में बैठी रहती है. मेहरा जी की बीवी से कोई लड़का अक्सर मेहरा जी के जाने के बाद मिलने आता है. इस तरह की बहुत सारी खबरें यहां के समाज में एक मुंह से दूसरे कान और दूसरे मुंह से तीसरे कान में पहुंचती रहती हैं.

इसका एक कारण यह भी है कि घर का काम तो नौकरों के भरोसे होता है और लोगों के पास ज्यादा कुछ करने के लिए होता नहीं है. तो फिर क्यों न बगल वाले की चुगली ही कर ली जाए. टाइम पास भी हो जाएगा और खाना भी पच जाएगा. नहीं तो फिर पेट में गैस बनने लगती है. मेरे घर में भी कई बार ऐसी ही चुगलियाँ चलती रहती हैं इसलिए मुझे यह सब पता है. उन दिनों कॉलेज की छुट्टियां थीं इसलिए मेरा ज्यादातर टाइम सोशल मीडिया पर ही पास होता था.

अपने रूम में गे पॉर्न देखकर मुट्ठ मारना या फिर किसी गे डेटिंग ऐप पर सारा दिन चैट में लगे रहना. अपने आस-पास के गे लड़कों की लोकेशन पता करना, अगर कोई पसंद आ जाए तो फिर उससे पिक्चर्स मांगना, अगर वो पिक्चर्स ना दिखाना चाहे तो अपनी फेक पिक्चर्स भेज कर उसकी असली पिक्चर्स देखने की कोशिश करना वगैरह … वगैरह … कामों में दिन आराम से निकल जाता था.

लेकिन जैसे लड़के मुझे पसंद थे वैसे लड़के किसी गे साइट या डेटिंग ऐप पर बहुत ही कम मिलते थे. या यूं कहें कि न के बराबर ही होते हैं. क्योंकि ज्यादातर पिक्चर्स फेक होती हैं या फिर इक्का दुक्का पिक्चर्स जो पसंद आती थीं उन्होंने अपनी बॉडी को इस तरह से दिखाया होता है कि कामदेव की आखिरी औलाद यही बची है अब. मगर जब उनसे रीयल लाइफ में मिलो तो हक़ीकत कुछ और ही होती थी.

मैं सब कुछ जानता था मगर फिर भी पता नहीं क्यों बार-बार ऐसी फालतू ऐप्स पर अपना टाइम बर्बाद करता रहता था. फिर मैंने एक नामी सोशल मीडिया साइट पर अपनी एक फीमेल आई-डी बनाई. उसका नाम तो आप सब भी जानते होंगे- चेहरे की किताब! मगर जो भी हो साइट बड़ी अच्छी है. चेहरे तो ऐसे-ऐसे लगे होते हैं वहां पर कि फिल्मी हीरो भी फीका पड़ जाए.

अब मेरा ज्यादा टाइम मेरी उस फेक आई-डी पर बीतने लगा था. कुछ लड़के थे भी वाकई बहुत हैंडसम. मेरी आई-डी में जेंडर फीमेल लिखा हुआ था तो रिक्वेस्ट भी जल्दी ही ऐक्सेप्ट हो जाती थी. फिर जिसका लंड मुंह में लेने के लिए मैं बेताब हो जाता उससे बातें शुरू कर देता था. वह बेचारा सोचता था कि किसी लड़की से बात कर रहा है इसलिए वो भी शुरू में तो पागल हुआ रहता था. जब भी लॉग इन करो तो 10-15 मैसेज तो इनबॉक्स में पड़े ही मिलते थे.

फिर हफ्ते भर बाद जब उससे बातें करने के बाद जब असलियत बताता तो हरामी ब्लॉक कर देता था.

ये स्ट्रेट लड़के भी न चूत के पीछे ही पागल होते हैं. हम जैसे किस्मत के मारों पर उनको ज़रा भी रहम नहीं आता. इसलिए मेरा दिल भी कई बार टूट चुका था. फिर एक गुड़गांव का लड़का मिला जिसने मेरी सच्चाई जानने के बाद भी मुझसे बातें करना जारी रखा. उसका नाम संजीव था. वह किसी कंपनी के लिए कैब ड्राइवर का काम करता था. लड़का देखने में काफी अच्छा था और यह पता लगने के बाद भी कि मैं एक लड़का हूँ, जब मैंने उससे मिलने की रिक्वेस्ट की तो वह आसानी से मान भी गया. मैं भी खुश था. काफी टाइम से उससे बात भी हो रही थी तो मुझे वह पसंद भी था और भरोसा करने के लायक भी लग रहा था.

शायद जनवरी का ही महीना था जब मैं उससे मिलने गया था. गुड़गांव (अब गुरूग्राम) के हुड्डा सिटी सेंटर मेट्रो स्टेशन पर उतर कर मैंने उसे फोन किया. उसने कहा कि वह आधे घंटे में पहुंच रहा है.

रात के 10 बज चुके थे और ठंड काफी बढ़ गई थी. मैं स्टेशन परिसर से बाहर निकलकर उसका इंतज़ार करने लगा. मेट्रो में तो सर्दी का पता नहीं लगा लेकिन बाहर निकला तो कानों पर लगती ठंडी हवाओं में मेरे जबड़े जल्दी ही एक दूसरे के साथ कटकटाने लगे. मैंने ऊपर देखा तो मैं खुले आसमान के नीचे खड़ा था. फिर सोचा कि मेट्रो लाइन के नीचे खड़ा हो जाता हूं कुछ तो राहत मिलेगी.

मैं जाकर एक मूंगफली वाले की रेहड़ी के पास जाकर खड़ा हो गया. उसकी रेहड़ी से आ रही धीमी-धीमी आंच और धुंआ तथा ऊपर से गुजर रही ऊंची मेट्रो लाइन मुझे ठंड से काफी हद तक बचाने लगी. ऑटोवाले भी इक्का दुक्का ही खड़े थे. एक-दो ने पूछा भी कि भैया कहां जाओगे तो मैंने मुंडी हिलाकर उनको मना कर दिया. फोन में टाइम देखा तो संजीव का कॉल आए हुए 20 मिनट हो चुके थे.

वैसे तो मुझमें पेशेंस बहुत है लेकिन पहली मुलाकात थी उससे तो ज्यादा भरोसा करने का मन भी नहीं कर रहा था. फिर भी मैं उसका इंतज़ार करता रहा. जब आधा घंटा हो गया तो मूंगफली वाला भी चला गया. मैंने सोचा अब अगर ऐसे बेवकूफों की तरह इंतजार किया तो जरूर रात में यहीं फंस जाऊंगा. मैंने सोच लिया कि उसको फोन करके पूछ लेता हूँ, अगर वह आ रहा है तो मैं रुकूंगा नहीं तो फिर मेट्रो लेकर वापस चला जाऊंगा. क्योंकि कुछ देर में लास्ट मेट्रो भी निकल जाएगी और मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं रात में कैब लेकर दिल्ली वापस चला जाऊं.

मैंने संजीव को फोन किया तो रिंग जाने लगी. उसने फोन नहीं उठाया. मुझे पता था यही होने वाला है. मैं ही बेवकूफ था जो ऐसे मुंह उठाकर उससे मिलने चला आया.

मैंने दोबारा फोन किया तो उसने दोबारा भी फोन नहीं उठाया. अब मेरा सब्र भी खत्म हो गया और समझदारी से काम लेते हुए मैं वापस मेट्रो स्टेशन की तरफ जाने लगा. कुछ ही कदम चला था कि संजीव का फोन आने लगा. फोन उठाते ही मैंने कहा- आप आ रहे हो क्या? उसने कहा- हां, बस 10 मिनट में पहुंच रहा हूँ।

अब यहां पर डिसीजन लेना और ज्यादा मुश्किल हो गया. क्योंकि 10 मिनट में आखरी मेट्रो निकल जाएगी और अगर यह नहीं आया तो फिर रात में जाऊँगा कहां. यहां गुड़गांव में किसी को जानता भी नहीं. बड़ी मुश्किल की घड़ी थी. मगर जब उसके फोटो के बारे में सोचने लगा तो सेक्स की प्यास समझदारी पर भारी हो गई और मैंने रिस्क लेने का फैसला कर लिया. मैं वापस बाहर आ गया. अब मैं काली ठंडी रात और पहली बार मिलने वाले संजीव के हवाले था. दोनों में से किसी एक पास रुकने के अलावा तीसरा कोई ऑप्शन नहीं था.

जब 15 मिनट और बीत गए तो गड़गड़ करती हुई मेट्रो की गाड़ी की आवाज स्टेशन की तरफ जाती हुई सुनाई दी. मुझे पता चल गया कि लास्ट मेट्रो निकल चुकी है. और अभी तक संजीव का फोन भी नहीं आया था.

अब मुझे सच में चिंता होने लगी थी क्योंकि अगर गर्मियों का मौसम होता तो मैं रात बाहर सड़क पर भी गुजार सकता था. मगर इतनी ठंड में बाहर रात गुजारना कैसे मुमकिन हो सकता था.

फिर संजीव का फोन रिंग करने लगा, मैंने देखा तो जान में जान आई. मैंने पूछा- कितने देर में आ रहो आप? उसने कहा- बस पहुंच ही रहा हूं … तुम कहां पर खड़े हो? मैंने कहा- मैं यहीं हुड्डा मेट्रो स्टेशन के नीचे ही खड़ा हूँ। उसने कहा- ठीक है, मैं गाड़ी लेकर बस 5 मिनट में पहुंच रहा हूँ।

लगभग 10 मिनट बीत जाने के बाद फिर से फोन रिंग करने लगा, मगर अबकी बार किसी दूसरे नम्बर से फोन आया था. मैंने फोन उठाकर हैल्लो कहा तो उधर से आवाज़ आई- रेहान … मैंने कहां- आप कौन … उसने पूछा- मैं संजीव, तुम कहां पर खड़े हो? मैंने कहा- मैं यहीं मेट्रो लाइन के नीचे ऑटो वाले के पास खड़ा हुआ हूँ।

फिर फोन अपने आप कट हो गया.

2 मिनट बाद एक सफेद रंग की कार आकर रूकी और उसने हॉर्न दिया. अब मुझे क्या पता कि वह संजीव वह गाड़ी संजीव लेकर आया है. जब मैंने कोई रेस्पोंस नहीं दिया तो उसने फिर से फोन किया और कहा कि जो सफेद गाड़ी तुम्हारे सामने खड़ी है उसमें आ जाओ. मैं खुश हो गया … इसलिए नहीं कि मुझे लंड मिलने वाला था बल्कि इसलिए कि मेरा रात में रुकने का जुगाड़ हो गया था. सच में जब ऐसी सिचुएश हो तो लंड-वंड कुछ ध्यान नहीं रहता. मैं गाड़ी में जाकर बैठ गया. ड्राइविंग सीट पर संजीव नहीं बल्कि कोई और लड़का बैठा था. संजीव उसके साथ वाली सीट पर था.

संजीव ने पीछे हाथ लाते हुए मुझसे हाथ मिलाया और गाड़ी शहर की तरफ मुड़कर सड़क पर दौड़ने लगी. गाड़ी में अंदर काफी आराम था. सर्दी से बचने के बाद जान में जान आई. सोचा कि अब कम से कम रात में बाहर तो धक्के नहीं खाने पड़ेंगे … क्योंकि घर पर तो मैं बोलकर आया था कि दोस्त के यहां बर्थडे पार्टी में जा रहा हूँ और रात में उसी के वहां पर रुकूंगा. इसलिए वापस घर जाने का तो सवाल ही नहीं था. अगर जाना भी पड़ता तो जाता कैसे. जेब में पैसे थे नहीं.

संजीव देखने में बिल्कुल वैसा ही था जैसा मैंने उसको फोटो में देखा था. लड़का जाट था इसलिए भरे-पूरे शरीर का था. मगर जब उसके दोस्त पर नज़र गई तो नज़र फिसलने लगी. सामने वाले शीशे में उसका चेहरा मुझे दिखाई दे रहा था. देखने में संजीव भी अच्छा था मगर जो लड़का गाड़ी चला रहा था उसे देखकर तो मैं यही कहूंगा कि संजीव अगर 19 था तो उसके बगल वाला 24 था. गाजरी रंग के लाल-लाल रसीले से होंठ, मीडियम साइज की प्यारी सी काली आंखें, रंग भी गोरा, बाल थोड़े चिपके हुए थे और ज्यादा आकर्षक नहीं थे. अगर उसके बाल भी अच्छे होते तो संजीव उसके सामने बहुत फीका था.

मैं बार-बार उसी को देखे जा रहा था जबकि मैं मिलने संजीव से गया था. बहुत ही प्यारा चेहरा था दूसरे वाले का. मगर वो कमीना तो मेरी तरफ देख भी नहीं रहा था. फिर उन दोनों में बातें होने लगी तो पता लगा कि उसका नाम नवीन है. वह भी संजीव की ही तरह कैब ड्राइवर है और दोनों एक ही कंपनी में काम करते हैं.

जल्दी ही हम एक गुड़गाँव के सेक्टर में पहुंच गए. लेकिन उनका कमरा सेक्टर में नहीं बल्कि सेक्टर के साथ लगते एक गांव में था. गुड़गांव शहर ही ऐसा है. यहां पर एक तरफ ऐसी बिल्डिंग खड़ी हुई दिखाई देती हैं कि लगता है कहीं विदेश में घूम रहे हैं और दूसरी तरफ बीच-बीच में छोटे-छोटे पुराने गांव बसे हैं जो केवल नाम के ही गांव रह गए हैं. वहां पर लोगों ने किराए के लिए ऊंचे-ऊंचे मकान बना दिए हैं जिनमें हॉस्टल टाइप कमरे बनाकर खूब पैसा लूट रहे हैं.

गांव में पहुंचकर नवीन ने गाड़ी रोकी और संजीव से गाड़ी को पार्क करने के लिए कह दिया. नवीन बाहर निकल गया और संजीव ने ड्राइविंग सीट संभाली और गाड़ी को सामने बने गैराज में ले गया. मैं पीछे वाली सीट पर ही बैठा हुआ था.

कहानी अगले भाग में जारी है. [email protected]

कहानी का अगला भाग: एक लड़के को देखा तो ऐसा लगा … -2

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