फ़ौजी

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लेखिका : लक्ष्मी कंवर

मैं जोरावर सिंह, राजस्थान से हूँ… गांव में बरसात ना होने के कारण हमारे यहाँ से बहुत से जवान फ़ौज में चले गये थे। मेरी पोस्टिंग उन दिनों राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके में थी। बोर्डर पर आतंकवादियों और तस्करों से निपटने के लिये हमारी एक ना एक टोली हमेशा बोर्डर की गश्त पर रहती थी। बोर्डर पर तब भी छुटपुट छोटे छोटे गांव थे… वहाँ के लोग कहने को पशु चराया करते थे जाने वे लोग वहाँ क्यों रहते थे? क्या वे आंतकियों की मदद करते थे?

एक रात गश्त के दौरान… दूर से हमने देखा कि एक स्थान पर आगजनी हो रही थी। मैं उस समय सबसे तेज दौड़ने वाला और बलिष्ठ जवानों में से एक था। लीडर ने मुझे इशारा किया। मैं हवा की तरफ़ दौड़ता हुआ मिनटों में वहाँ पहुंच गया। एक दो महिला की चीखों की आवाजे आ रही थी। मैंने देख कि एक घर आग की लपटों से घिरा हुआ था … एक आवाज तो वहीं से आ रही थी। मैंने हिम्मत बांधी और उस जलती हुई झोंपड़ी में घुस गया…

अन्दर देखा कि एक कोने में एक युवती के हाथ-पांव बांध कर पटक रखा था। मैंने तुरन्त उसे खोला और उसे कंधे पर लादा और फिर से रेतीले जंगल में कूद पड़ा। झाड़ियों में से होते हुए मैं उस युवती को लिये हुये चलता रहा… फिर थक कर रेत के एक गड्डे में गिर पड़ा और हांफ़ने लगा।

तभी उस युवती की हंसी सुनाई दी।

“अरे, थक गए? मुझे क्यों उठाए भाग रहे हो? मैं कोई लंगड़ी लूली थोड़े ही हूँ… भली चंगी हूँ… फ़ौजी तो बस मजे…”

“चुप हरामजादी… साली को गोली मार दूंगा… एक तो बचा कर लाया !”

“मेरा मतलब था कि मुझे भी चलना आता है… कब तक मुझे उठा कर चलते… तुमसे तेज भाग लेती हूँ !

मुझे भी हंसी आ गई… पर इतना समय ही कहाँ था। बस, मेरा तो एक ही लक्ष्य था। उसे सुरक्षित स्थान पर ले जाना। कुछ ही समय बाद मैं वो उसके साथ पास वाले गांव में थे। वहाँ के मुखिया ने हमें बाहर एक झोंपड़ीनुमा घर में ठहरा दिया। रात के तीन बज रहे थे। मैं बाहर आकर एक रेत के टीले पर बैठ गया। तभी वो युवती भी आ गई।

मेरा नाम खेरूनिस्सा है…

मैं जोरावर सिंह … फ़ौजी…

मैंने उसे अब ध्यान से देखा … वो एक गोरी लड़की थी… पतली दुबली… पर तेज तर्रार… सुन्दर… शरीर का लोच… जैसे रबड़ की गुड़िया हो … उसके स्तन ठीक ठाक थे … बहुत बड़े नहीं थे … पर उसके नितम्ब … अच्छी गोलाई लिये हुये थे।

“हाय मेरी सलोनी… !”

“क्या कहा?”

“सलोनी … मेरी पत्नी … तुम्हारी ही तरह …”

“बहुत प्यार करते हो उसे…!”

“बहुत … बहुत … इतना कि … बस छ: माह से दूर हूँ … उसकी याद तड़पा जाती है।” मैं कहीं दूर यादों में खोता हुआ बोल रहा था।

वो मेरे पास आकर बैठ गई। मैं अभी एक पठानी कुर्ते में था… खेरू भी पठानी कुर्ते में थी। जो हमें गांव के मुखिया ने दिया था।

“तुम क्या पहलवान हो?”

“नहीं, पर मैं फ़ौज में अपनी मरजी से पहलवानी करता हूँ … दौड़ का अभ्यास करता हूँ … ये मेरे बहुत काम आता है।”

वो मेरे और नजदीक आ गई और अपनी पीठ मेरी छाती से लगा दी और आराम से बैठ गई। मुझे बहुत सुकून सा मिला। एक नारी के तन का स्पर्श … बहुत मन को भाया।

“मैं ऐसे बैठ जाऊँ … बड़ा अच्छा लग रहा है।” खेरू ने मुझे मुस्करा कर देखा।

“सच… खेरू… तू तो मन को भा गई।”

“अल्लाह रे … आप तो बड़े गुदगुदे से है … आपकी गोदी में बैठ जाऊँ …?” उसके आखों में एक ललाई सी थी।

मुझे बड़ी तेज सनसनी सी लगी। वो अपना कुर्ता ऊपर करके ठीक से मेरी गोदी में बैठ गई। मेरा पौरुष धीरे धीरे जागने लगा। एक युवती मेरी गोदी में आकर बैठ जाये तो लण्ड का विचलित होना स्वभाविक ही है।

“जरा सा ऊपर उठो तो … मेरा कुर्ता फ़ंस रहा है … ऊंचा कर लूँ …” मैंने उससे कहा।

उसने अपनी गाण्ड धीरे से ऊपर कर ली, मैंने कुर्ता ऊपर खींच लिया। मेरी तरह उसने भी कुर्ते के नीचे कुछ नहीं पहन रखा था। वो सीधे ही मेरे लण्ड पर बैठ गई।

“अरे… कमाल है तू भी… नीचे कुछ पहना नहीं?”

तिरछी नजर से उसने मुझे देखा, मैं तो घायल सा हो गया।

“खेरू … बैठी रह … अच्छा लगे है…”

मेरा लण्ड अब सख्त होने लगा था। उसने मेरे गालों को सहला कर प्यार से चपत मारी- जानते हो जोरावर … आप मुझे अच्छे लगने लगे हो…

” तू भी मेरे दिल को भाने लगी है…”

मेरा एक हाथ पकड़ कर उसने चूमा और उसे अपने कोमल से उभरे हुये स्तन पर रख दिया। उफ़्फ़ ! गरम गरम से… गुदाज और मांसल … मैंने हल्के से उसे दबा दिये।

“ऐसे नहीं जी … जरा जोर से … दबाइये … अह्ह्ह्ह”

मेरा लण्ड अब पूरी तरह से कठोर होकर खेरू की चूत को बराबर कुरेद रहा था। अब तो वो गीला भी हो चुका था। खेरू ने अपनी टांगों को और खोल सा लिया था … वो मेरी छाती से लिपट गई थी।

उस्स्स … अल्लाह … उसने मेरा कुरता जोर से थाम लिया। मेरा सुपारा उसकी चूत में हौले से प्रवेश कर गया था। मैंने उसे जोर से जकड़ लिया था। ये किसी तरह का कोई आसन नहीं था … बस हम दोनों आड़े टेढे से लिपटे हुये सुख भोग रहे थे।

तभी उसने भी अपने आप को सेट किया और मैंने भी उसे और लिपटा लिया। उसकी अधखुली आंखे मुझे ही निहार रही थी। लण्ड घुसता ही चला जा रहा था।

“अब्ब्ब्ब … उह्ह्ह्ह … मेरे राजा … ये कैसा लग रहा है … अम्मी जान … अह्ह्ह्ह …”

“मेरी खेरू … मेरी जान … आह्ह्ह्ह्ह … कितना आनन्द आ रहा है …।”

मेरा लण्ड पूरा भीतर बैठ गया था। वो तो जैसे अधखुली आँखों से सपने देख रही थी … आनन्द की अनूभूतियाँ बटोर रही थी। फिर उसने जैसे नीचे से हिलना आरम्भ किया… जैसे रगड़ना … मीठी मीठी सी जलन … गुदगुदी … एक कसक … बस ऐसे ही हिलते हिलते हम आनन्द के दौर से गुजरने लगे… उसके थरथराते होंठ अब मेरे होंठो से दब चुके थे… उसके नर्म से कठोर उरोज… मसले जा रहे थे … फिर जैसे एक ज्वार सा आया … हम दोनों उसमें बह निकले…।

झड़ने के बाद भी हम दोनों वैसे ही वहीं पर गोदी में आनन्द लेते रहे। लण्ड झड़ कर कबका बाहर फिसल कर निकल चुका था। पर कुछ ही देर में लण्ड तो फिर से सख्त हो गया। इस बार खेरू ने अपनी मन की कर ही कर ही ली।

वो धीरे से मेरी गोदी से उठी और आगे झुक सी गई … उसके गोल गोल मांसल चूतड़ खिल कर चांदनी में चमक उठे। मेरा लण्ड फिर से जोर मारने लगा।

मैंने तुरन्त निशाना साधा और उसकी कोमल गाण्ड में लण्ड का सुपाड़ा घुसा दिया।

वो खुशी से झूम उठी।

मैंने अपना लण्ड धीरे धीरे अन्दर बाहर करते हुये उसे पूरा घुसेड़ दिया। उसने अपना सर झुका कर रेत के गुबार पर रख दिया। मेरा लम्बूतरा लण्ड उसकी गाण्ड में मस्ती से चलने लगा था।

बहुत देर तक उसकी कोमल गाण्ड को चोदा था मैंने … फिर मेरा स्खलन हो गया। उसकी चूत ने भी इस दौरान दो बार पानी छोड़ा था। फिर कुर्ता ठीक करके हम दोनो ही गहरी नींद में सो गये थे। सवेरे हमें उसी मुखिया ने जगाया … हमने चाय वगैरह पी … तभी हमारी जीप वहाँ आ गई थी।

मुख्यालय पर जाकर खेरू ने बताया कि बोर्डर से आने वाले आतंकियो को मार कर उनके हथियार वे लोग छुपा लेते थे … उसकी निशान देही पर भारी मात्रा में हथियार की बरामदगी की गई। अब मेरे दिमाग में बोर्डर पर रहने वालों के लिये दुश्मनी का नहीं आदर का भाव आ गया था। खेरू द्वारा करवाई गई इस बरामदगी के लिये सराहा भी गया था।

मूल कथा

जोरावर सिंह

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