विदुषी की विनिमय-लीला-5

लेखक : लीलाधर

वे हौले-हौले मेरे पैरों को सहला रहे थे। तलवों को, टखनों को, पिंडलियों को… विशेषकर घुटनों के अंदर की संवेदनशील जगह को। धीरे-धीरे नाइटी के अंदर भी हाथ ले जा रहे थे। देख रहे थे मैं विरोध करती हूँ कि नहीं।

मैं लज्‍जा-प्रदर्शन की खातिर मामूली-सा प्रतिरोध कर रही थी। जब घूमते-घूमते उनकी उंगलियाँ अंदर पैंटी से टकराईं तो पुन: मेरी जाँघें कस गईं। मुझे लगा जरूर उन्‍होंने अंदर का गीलापन पकड़ लिया होगा। हाय, लाज से मैं मर गई।

उनके हाथ एक आग्रह और जिद में कोंचते रहे। मेरे पाँव धीरे-धीरे खुल गए।

शायद संदीप कहीं पास हों, काश वे आकर मुझे रोक लें। मैंने उन्‍हें खोजा… ‘संदीपऽऽ !’

अनय हँसकर बोले,” उसकी चिंता मत करो। अब तक उसने शीला को पटा लिया होगा।”

‘पटा लिया होगा’… मैं भी ‘पट’ रही थी… कैसी विचित्र बात थी। अब तक मैंने इसे इस तरह देखा नहीं था।

अनय पैंटी के ऊपर से ही मेरा पेड़ू सहला रहे थे। मुझे शरम आ रही थी कि योनि कितनी गीली हो गई है, पर अनय ही तो इसके लिए जिम्‍मेदार थे। उनके हाथ पैंटी में से छनकर आते रस को आसपास की सूखी त्‍वचा पर फैला रहे थे। धीरे-धीरे जैसे पूरा शरीर ही संवेदनशील हुआ जा रहा था। कोई भी छुअन, कैसी भी रगड़ मुझे और उत्‍तेजित कर देती थी।

जब उन्‍होंने उंगली को होंठों की लम्‍बाई में रखकर अंदर दबाकर सहलाया तो मैं लगभग एक छोटे चरम सुख तक पहुँच गई थी। मेरी चिल्‍लाहटों को उन्‍होंने मेरे मुँह पर अपना मुँह रखकर दबा दिया।

“विदुषी, तुम ठीक तो हो ना?” मेरी कुछ क्षणों की मूर्च्‍छा से उबरने के बाद उन्‍होंने पूछा।

उन्‍होंने इस क्रिया के दौरान पहली बार मेरा नाम लिया था। उसमें थोड़े परिचय का साहस था।

“हाँ…” मैंने शर्माते हुए उत्‍तर दिया। मेरे जवाब से उनके मुँह पर मुसकान फैल गई, उन्‍होंने मुझे चूमा।

मेरी आँखें संदीप को खोजती एक क्षण के लिए व्‍यर्थ ही घूमीं और उन्‍होंने देख लिया।

“संदीप?” वे हँसे।

वे उठे और मुझे अपने साथ लेकर दरवाजे से बाहर आ गए। सोफे खाली थे। दूसरे बेडरूम से मद्धम कराहटों की आवाज आ रही थी… दरवाजा खुला ही था। पर्दे की आड़ से देखा… संदीप का हाथ शीला के खुले स्‍तनों पर था और सिर शीला की उठी टांगों के बीच। उसके चूचुक बीच बीच में प्रकट होकर चमक जाते।

अचानक जैसे शीला ने जोर से ‘आऽऽऽऽऽह !’ की और एक आवेग में नितम्‍ब उठा दिए। शायद संदीप के होंठों या जीभ ने अंदर की ‘सही’ जगह पर चोट कर दी थी।

मेरा पति… दूसरी औरत के साथ काम आनन्द क्रिया में डूबा… इसी का तो वह ख्वाब देख रहा था।… मुझे क्‍या उबारेगा… मेरे अंदर कुछ डूबने लगा। मैंने अनय का कंधा थाम लिया।

अनय फुसफुसाए,”अंदर चलें? सब एक साथ…”

मैंने उन्‍हें पीछे खींच लिया।

वे मुझे सहारा देते लाए और सम्‍हालकर बड़े प्‍यार से पलंग पर लिटाया, जैसे कोई कीमती तोहफा हूँ। मैं देख रही थी किस प्रकार वे मेरी नाइटी के बटन खोल रहे थे। उसमें विरोध करना बेमानी तो क्‍या, असभ्‍यता सी लगती। वे एक एक बटन खोलते, कपड़े को सस्‍पेंस पैदा करते हुए धीरे धीरे सरकाते, जैसे कोई रहस्‍य प्रकट होने वाला हो, फिर अचानक खुल गए हिस्‍से को को प्‍यार से चूमने लगते। मैं गुदगुदी और रोमांच से उछल जाती। उनका तरीका बड़ा ही मनमोहक था। वे नाभि के नीचे वाली बटन पर पहुँचे तो मैंने हाथों से दबा लिया, हालांकि अंदर अभी पैंटी की सुरक्षा थी। यह कहानी आप अन्तर्वासना.कॉम पर पढ़ रहे हैं।

“मुझे अपनी कलाकारी नहीं देखने दोगी?”

“कौन सी कलाकारी?”

“वो… फुलझड़ी…”

“हाय राम!!” मैं लाल हो गई। तो संदीप ने उन्‍हें इसके बारे में बता दिया था।

“और क्‍या क्‍या बताया है संदीप ने मेरे बारे में?”

“कि मैं एक दूसरा प्रशंसक बनने वाला हूँ, तुम्‍हारे आर्ट का। देखने दो ना !”

मैं हाथ दबाए रही। उन्‍होंने और नीचे के दो बटन खोल दिए। मैं देख रही थी कि अब वे जबरदस्‍ती करते हैं कि नहीं। लेकिन वे रुके, मेरी आँखों में एक क्षण देखा, फिर झुककर मेरे हाथों को ऊपर से ही चूमने लगे। उससे बचने के लिए हाथ हटाए तो वे बटन खोल गए। इस बार उन्‍होंने कोई सस्‍पेंस नहीं बनाया, झपट कर पैंटी के ऊपर ही जोर से मुँह जमाकर चूम लिया। मेरी कोशिश से उनका सिर अलग हुआ तो मैंने देखा वे अपने होंठों पर लगे मेरे रस को जीभ से चाट रहे थे।

उन दो क्षणों के छोटे से उत्‍तेजक संघर्ष में पराजित होना बहुत मीठा लगा। उन्‍होंने आत्‍मविश्‍वास से नाइटी के पल्‍ले अलग कर दिए। नाइटी के दो खुले पल्‍लों पर अत्‍यंत सुंदर डिजाइनर ब्रा पैंटी में सुसज्‍जित मैं किसी महारानी की तरह लेटी थी। मैंने अपना सबसे सुंदर अंतर्वस्‍त्र चुना था। अनय की प्रशंसाविस्‍मित आंखें मुझे गर्वित कर रही थीं।

अनय ने जब मेरी पैंटी उतारने की कोशिश की तो मेरे हाथ आदतवश ही रोकने को पहुँचे, लेकिन साथ ही मेरे नितम्‍ब भी उनके खींचते हाथों को सुविधा देने के लिए उठ गए।

“ओह हो, क्‍या बात है !” मेरी ‘फुलझड़ी’ को देखकर वे चहक उठे।

मैंने योनि को छिपाने के लिए पाँव कस लिए। गोरी उभरी वेदी पर बालों का धब्‍बा काजल के लम्बे टीके-सा दिख रहा था।

“लवली ! लवली ! वाकई खूबसूरत बना है। इसे तो जरूर खास ट्रीटमेंट चाहिए।” कतरे हुए बालों पर उनकी उंगली का खुर-खुर स्‍पर्श मुझे खुद नया लग रहा था।

मैं उम्‍मीद कर रही थी अब वे मेरे पाँवों को फैलाएंगे। जब से उन्होंने पैंटी को चूमा था मन में योनि से उनके होंठों और जीभ के बेहद सुखद संगम की कल्‍पना जोर मार रही थी। मैं पाँव कसे थी लेकिन सोच रही थी उन्हें खोलने में ज्‍यादा मेहनत नहीं करवाऊँगी।

पर वे मुझसे अलग हो गए, अपने कपड़े उतारने लगे।

वे मुझे पहले इच्‍छुक बना कर फिर इंतजार करा कर बड़े महीन तरीके से यातना दे रहे थे। मेरी रुचि उनमें बढ़ती जा रही थी।

उनके प्रकट होते बदन को ठीक से देखने के लिए मैं तकिए का सहारा लेककर बैठ गई, ‘फुलझड़ी’ हथेली से ढके रही। पहले कमीज गई, बनियान गई, मोजे गए, कमर की बेल्‍ट और फिर ओह… वो अत्‍यंत सेक्सी काली ब्रीफ। उसमें के बड़े से उभार ने मेरे मन में संभावनाओं की लहर उठा दी।

धीरज रख विदुषी… मैंने अपनी उत्‍सुकता को डाँटा।

बहुत अच्‍छे आकार में रखा था उन्‍होंने खुद को। चौड़ी छाती, माँसपेशीदार बाँहें, कंधे, पैर, पेट में चर्बी नहीं, पतली कमर, छाती पर मर्दाना खूबसूरती बढ़ाते थोड़े से बाल, सही परिमाण में, इतना अधिक नहीं कि जानवर-सा लगे, न इतना कम कि चॉकलेटी महसूस हो।

वे आकर मेरी बगल में बैठ गए। यह देखकर मन में हँसी आई कि इतने आत्‍मविश्‍वास भरे आदमी के चेहरे पर इस वक्‍त संकोच और शर्म का भाव था। मैंने उनका हाथ अपने हाथ में ले लिया। वे धीरे धीरे नीचे सरकते हुए मुझसे लिपट गए।

ओहो, तो इनको स्‍वीट और भोला बनना भी आता है।

पर वह चतुराई थी। वे मेरे खुले कंधों, गले, गर्दन को चूम रहे थे। इस बीच पीठ पीछे मेरी ब्रा की हुक पर उनके दक्ष हाथों फक से खुल गई। मैंने शिकायत में उनकी पीठ पर हल्‍का-सा मुक्‍का मारा, वे मुझे और जोर से चूमने लगे।

उन्‍होंने मुझे धीरे से उठाया और एक एक करके दोनों बाँहों से नाइटी और साथ में ब्रा भी निकाल दी। मैं बस बाँहों से ही स्‍तन ढक सकी।

काश मैं द्वन्‍द्वहीन होकर इस आनन्द का भोग करती। मन में पीढ़ियों से जमे संस्‍कार मानते कहाँ हैं। बस एक ही बात का दिलासा था कि संदीप भी संभवत: इसी तरह मजा ले रहे होंगे।

इस बार अनय के बड़े हाथों को अपने नग्‍न स्‍तनों पर महसूस किया। पूर्व की अपेक्षा यह कितना आनन्ददायी था। उनके हाथ में यह मनोनुकूल आकारों में ढल रहा था। वे उन्हें कुम्‍हार की मिट्टी की तरह गूंथ रहे थे। मेरे चूचुक सख्‍त हो गए थे और उनकी हथेली में चुभ रहे थे।

होंठ, ठुड्डी, गले के पर्दे, कंधे, कॉलर बोन… उनके होंठों का गीला सफर मेरे संवेदनशील नोंकों के नजदीक आ रहा था। प्रत्‍याशा में वे दोनों बेहद सख्‍त हो गए थे। मैं शर्म से अनय का सिर पकड़ कर रोक रही थी, हालाँकि मेरे चूचुकों को उनके मुँह की गर्माहट का इंतजार था। उनके होंठ नोंकों से बचा-बचाकर अगल-बगल ही खेल रहे थे। लुका-छिपी का यह खेल मुझे अधीर कर रहा था।

एक, दो, तीन… उन्होंने एक तने चूचुक को जीभ से छेड़ा़… एक क्षण का इंतजार… और… हठात् एकदम से मुँह में ले लिया। आऽऽऽह.. लाज की दीवार फाँदकर एक हँसी की किलकी मेरे मुँह से निकल ही गई।

वे उन्‍हें हौले हौले चूस रहे थे– बच्‍चे की तरह। बारी बारी से उन्हें कभी चूसते, कभी चूमते, कभी होंठों के बीच दबाकर खींचते। कुछ क्षणों की हिचक के बाद मैं भी उनके सिर पर हाथ फिरा रही थी। यह संवेदन अनजाना नहीं था, पर आज इसकी तीव्रता नई थी। हिलोरों में झूल रही थी। निरंतर लज्‍जा का रोमांच उसमें सनसनी घोल रहा था। एक गैर पुरुष मेरी देह के अंतरंग रहस्‍यों से परिचित हो रहा था, जिसे सामान्‍य स्‍थिति में मुझे गौर से देखने तक की भी शिष्‍टता के दायरे में इजाजत नहीं थी। मेरी देह की कसमसाहटें और मरोड़ उसे आगे बढ़ने के लिए हरी झण्‍डी दिखा रही थीं। उनका दाहिना हाथ मेरे निचले उभार को सहला रहा था।

अगर मेरे माता-पिता, कोई भाई-बहन मुझे इस अवस्‍था में देख ले तो? रोंगटे खड़े हो गए। लेकिन केवल शर्म से नहीं, बल्‍कि उस आह्लादकारी उत्‍तेजना से भी जो अचानक अभी अभी मेरे पेड़ू पर से आई थी। अनय का दायाँ हाथ मेरे ‘त्रिभुज’ को रुखाई से मसलता होंठों के अंदर छिपी भगनासा को सहला गया था।

मेरी जाँघें कसी न रह पाईं। उन्‍होंने उन्‍हें फैला दिया और मेरी इस ‘स्‍वीकृति’ का चुम्‍बन से स्‍वागत किया।

उनकी उंगलियों ने नीचे उतरकर गर्म गीले होंठों का जायजा लिया। मैं महसूस कर रही थी अपने द्रव को अंदर से निकलते हुए। उनकी उंगली चिपचिपा रही थी। एक बार उस गीलेपन को उन्‍होंने ऊपर ‘फुलझड़ी’ में पोंछ भी दिया।

अब वे स्‍तनों को छोड़कर नीचे उतरे। थोड़ी देर के लिए नाभि पर ठहरकर उसमें जीभ से गुदगुदी की। उन्होंने एक हाथ से मेरे बाएँ पैर को उठाया और उसे घुटने से मोड़ दिया। अंदरूनी जाँघों को सहलाते हुए आकर बीच के होठों पर ठहर गये। दोनों उंगलियों से होठों को फैला दिया।

“हे भगवान”, मैंने सोचा, “संदीप के सिवा यह पहला व्यक्ति था जो मुझे इस तरह देख रहा था।” मुझे खुद पर शर्म आई।

पढ़ते रहिएगा !