नवाजिश-ए-हुस्न-2

This website is for sale. If you're interested, contact us. Email ID: [email protected]. Starting price: $2,000

लेखक : अलवी साहब

इतने में हम पहुँच गए और चारों को सही सलामत ऊपर उनके कमरे तक पहुँचाया, सामान अन्दर रखवाया, मैं दरवाज़े पे खड़ा हुआ था और जाने लगा तो रज़िया- बोली जा रहे हो?

मैंने कहा- शहनाज़ को छोड़ के जाने का दिल तो नहीं कर रहा मगर वो तो मुझसे ऐसे गाफिल है के जाना ही पड़ेगा यहाँ से मुझे !

कहानी जारी रहेगी !

शहनाज़ यह सुन कर उठी और आई मेरे पास दरवाज़े पे और बेखुदी की हालत में मुस्कुराते हुए बोली- मैं कहाँ गाफिल हूँ?

मैंने कहा- सर से पाँव तक गाफिल हो तुम अपनी खूबसूरती से, तुम्हें अंदाजा तक नहीं मेरे दिल की केफियत का, क़सम इश्क-ए-जुलेखा की मुझ पे मुसलसल गशी तारी है आपके जलवो की हैबत से !

इतना सुनते ही निहायती प्यारी अदा से वो शरमाते हुए मुँह फेर कर अन्दर की तरफ चली गयी।

मैंने कहा- तुम मुझ से लाख दूर जाओ मगर खुद से कैसे दूर जाओगी?

जब जब अपने आप को आईने के सामने पाओगी।

और इसी के साथ एक शेर याद आ गया मुझे ‘शाकिर’ का

“मुझे यकीं है कि आराईश-ए-जमाल के बाद तुम्हारे हाथ से आईना गिर गया होगा”

यह शेर सिर्फ यहाँ लिखा है, न कि वहाँ बोला था।

इतने में दुल्हन की नज़र मेरी तरफ उठी तो अहेतरामन मैंने अब इस साज़िश-ए-इश्क की फितना-खोरी को यहाँ रोकना ठीक समझा और रज़िया से मुखातिब होते हुए कहा- यह मेरा मोबाइल नंबर है, अगर कुछ काम पड़े तो मुझे काल कर लेना !

और निकल आया वहाँ से और अफज़ल के घर आ गया।

कुछ देर न बीती थी कि फोन आया, शीरीं आवाज़ में वो गुलबदन बोली- अस-सलामो-अलैकुम !

मैंने जवाबन कहा व-अलैकुमो अस-सलाम या अहेल-उल हुस्न ! जी शहनाज़ बोलो?

तो वो ताज्जुब पाते हुए बोली- अरे, आप तो पहचान गए।

तो मैंने साज़िश-ए-इश्क के तहत एक वार और किया- जी खुदा ने ये होश-ओ-हुनर अता किया है के अब ता-उम्र आपकी आहट से ही आपको पहचान लूँगा।

शरमाहट के आलम में वो मेरे इस जुमले पर कुछ न बोली और कहने लगी- कैसे हैं आप?

मैंने कहा- तक़रीबन जहाँ तक मेरा ख़याल है, ठीक हूँ ! आगे आपका जो ख़याल हो उस हालत में मुन्तकिल होना मेरे वजूद-ए-बेअसर के लिए असरदार होगा…

तो शहनाज़ बोली- अल्लाह्ह, कितनी दिल-फरेब और दिल-काश बातें करते हैं आप ! कौन हो आप?

मैंने कहा- जी आपका अभी अभी ताज़ा ताज़ा किया गया ज़ख़्मी हूँ, दर्द-मंद हूँ, दर्द की शिफा चाहता हूँ !

आप को बता दूँ कि ज़हीन लड़की/औरत से ही दोस्ती और मोहब्बत करना पसंद करता हूँ, ज़हीन की ज़हानत उसे जिस्मानियत के रिश्ते की पूरी लज्ज़त देती है, कम-अक्ल लड़की/औरत को सिर्फ सेक्स का ही शऊर होता है, उसकी असल लज्ज़त और मोहब्बत का उसे अंदाजा नहीं होता। ज़हीन लड़की/औरत के दिल में प्यार का असर पैदा करना कमाल है, और मैं कमाल-पसंद को ही पसंद करता हूँ।

तो वो अपनी ज़हानत (अकलमंदी) का मुजाहिरा करते हुए और मैं जिस अंदाज़ से पेश आ रहा हूँ, वो उसे पसंद है, इन दोनों बातों का इज़हार करते हुए बोली- आपकी चाहत अपनी जगह दुरुस्त और जायज़ है मगर बहरहाल मैं चाहती हूँ हमारी बस से दुल्हन का बैग आप भिजवा दें तो आपकी मेहरबानी होगी।

मैंने कहा- ओये होए ! खुद ना’मेहरबाँ होके हम से महेरबानी की उम्मीद लगाए बैठी हो? कुर्बान जाऊँ तुम्हारी इस सरकशी पर !

तो कहने लगी- कुर्बान बाद में जाना, अभी बस पे जाओ और बैग भिजवा दो !

मैंने कहा- बन्दा खुद ही लेकर हाज़िर होता है, इसी बहाने आपके वजूद-ए-पुर-जमाल का फ़िर एक बार दीदार हो जाएगा अल्लाह के करम से !

“ठीक है !” कह कर उसने फोन रख दिया। यह कहानी आप अन्तर्वासना डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं।

यानि इतना ज़रूर समझ आने लगा था कि मेरी दीवानगी उसे अहसास-ए-नाज़ दिला रही थी और उसे अच्छा लग रहा था, मैंने इरादा किया कि उसे बाईक पे अपने पीछे बिठाना है और वैसे भी कार को सजाने की तैयारी हो रही थी दूल्हे के लिए !

मैं गया अफज़ल की बाईक लेकर बस पे, और बस कहाँ खड़ी है ये देख लिया, और फ़िर बैग लिए बिना सीधे होटल पे गया।

दरवाज़ा रज़िया ने खोला और बोली- लाये आप बैग?

मैंने कहा- शहनाज़ कहाँ है?

तो रज़िया कहने लगी- अरे अस्माँ के साथ साथ शहनाज़ को भी आज के आज दुल्हन बना के यहीं रख लेने का इरादा है क्या?

मैंने कहा- हाँ !!

तो हंस दी वो और शहनाज़ को आवाज़ दी- शहनाज़ !

वो वाशरूम से बोली- आई !

आई तो उसके चेहरे से पानी टपक रहा था, बाल भीग गए थे, क़यामतनुमा मंज़र था और दुपट्टा भी नहीं था।

मुझे देख कर हड़बड़ाहट से दुपट्टा लेकर अपने आपको महफ़ूज़ किया लिबास-ए-इज्ज़त में !

मुझे उसकी इस अदा पे उसपे बहुत प्यार आया, मैंने उसे कहा ऐसे हक से मानो वो मेरी जौजा (पत्नी) हो- चलो मेरे साथ बस में तो बहुत सी बैग हैं उसमें तुम लोगों की कौन सी है, मुझे क्या मालूम?

तो इधर उधर सबकी ओर देखने लगी और रज़िया से कहने लगी- तू जा !

रज़िया बोली- शहनाज़ तेरी आँखों की बेचैनी कह रही है कि तू जाना चाहती है, फ़िर यग नाटक क्यों कि ‘रज़िया तू जा’?

तो वो मेरी और देख कर शरमा के मुस्कुरा दी और दबे पाँव किसी के सामने देखे बिना कमरे से बाहर निकल आई, और मैं भी उसके पीछे निकल आया। रज़िया ने ‘बेस्ट ऑफ़ लक’ का अंगूठा दिखाया मुझे और शहनाज़ को !

हम दोनों साथ साथ नीचे उतरे, वो एक लफ्ज़ न बोल रही थी क्योंकि रज़िया ने जो विस्फोट किया था उसकी वजह से वो शर्मसार और पानी पानी हुए जा रही थी।

मैंने बाईक निकाली और बैठने को कहा, वो चुपचाप खड़ी रही तो मैंने कहा- अगर नहीं आना तो रजिया को ले जाऊँ?

तो वो गुस्से से मेरी ओर ऐसे देखने लगी, मानो हम दोनों का पुराना रिश्ता हो, और बैठ गई, एक हाथ मेरे कन्धे पर रखा तो मैंने अपनी गर्दन से उसके हाथ को दबोचा और पीछे तिरछी नज़र से देखा तो मुस्कुरा रही थी, यानि तीन चौथाई यकीन हासिल हो गया के अब इसके दिल के मुल्क पर मेरी हुकूमत साबित हो कर रहेगी, और मैं एक तानाशाह हुक्मुरान बन के हुकूमत करूँगा इसके दिल पर, इसके रोम रोम पर !

बाईक चलाते हुए मैंने उसे कहा- सही से पकड़ के बैठना !

और फ़िर हम बस तक पहुँच गए और बस में अन्दर गए, पूरी बस खाली थी, हम दोनों अन्दर अकेले थे, वो बैग ढूंढ़ रही थी और मैं उसके करीब ही था बिल्कुल, मैंने उसकी कलाई पकड़ी और सीट पर बिठा दिया, खुद भी बैठ गया, और बहुत ही संजीदगी के साथ उसे कहा- शहनाज़, खुदा जाने क्या बात है, आज जब से आप को देखा है, दिल मुसलसल ये निदा दे रहा है कि आप खुदा की जानिब से नाजिल की गई अमानत हो मेरे दिल पर, दिल में आपके लिए इस कदर इज्ज़त और अहेतराम और प्यार उभर रहा है कि मैं खुद बर्दाश्त नहीं कर पा रहा।

कहानी जारी रहेगी !

This website is for sale. If you're interested, contact us. Email ID: [email protected]. Starting price: $2,000