बदन बदन से और लबों से लब मिलते हैं

अन्तर्वासना के समस्त पाठकों को कवि पंकज प्रखर का प्यार भरा नमस्कार…

कई वर्षों से अन्तर्वासना की रागानुराग रंजित कथाएँ पढ़ने के उपरान्त मन में उत्कंठा जागी कि कुछ अपनी आपबीती भी दुनिया के साथ बाँट ली जाए… वरना दुनिया के अफ़साने पढ़ते पढ़ते कहीं अपने दिल की यादगार स्मृतियाँ समय के गर्त में विलीन न हो जाएँ…

तो चलिए चलते हैं एक ऐसी रंगीन दुनिया में.. जिसने मेरा कामसूत्र के रंगों या कहें सूत्रों से मेरा पहला परिचय करवाया… मगर उससे पूर्व आप मेरे बारे में भी कुछ जान लें !

मेरा नाम पंकज प्रखर है, उम्र लगभग 30 वर्ष, कद 5 फिट 7 इंच शक्ल सूरत एकदम साधारण है मगर फिर भी कुछ तो है जो महिलाओं को मेरी तरफ आकर्षित करता है… मगर हाय रे यह मेरा संकोची स्वभाव… कितनी आँखों के मुखर आमंत्रण ठुकरा चुका है… आज भी कितने निमंत्रण देते हुए इशारे आँखों की सरहद में दाखिल होते हैं मगर यह स्वभाव.. दुनियादारी का हवाला देते हुए अपने कवच में छुपा रहता है।

मगर आज से 11 वर्ष पहले कुछ ऐसा घटा जिसने एक दिन के लिए संकोच की इस घेराबन्दी को तार-तार कर दिया। बात 2001 की है, जब मैंने कुछ कवि सम्मेलनों में जाना शुरू किया और एक दिन मुझे एक कार्यक्रम में मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल बुलाया गया.. कार्यक्रम में एक कवियत्री ने ग़ज़ल पढ़ी जिसमें

ये खता इक शराफत की तरह करते रहे,

हम मुहब्बत भी इबादत की तरह करते रहे !

उसके बाद कविता पढ़ने के लिए संचालक ने मेरा नाम पुकारा… और मैंने उसके इसी शेर को आधार बनाते हुए कहा:

लोग मुहब्बत को इबादत की तरह करने की बात करते हैं

मगर सच्चाई ये है कि बदन बदन से और लबों से लब मिलते हैं,

लोग प्यार में इससे ज्यादा कब मिलते हैं !

कवि सम्मलेन के बाद लगभग 35 वर्ष की महिला मेरे पास आकर मेरे काव्य पाठ की तारीफ़ करने लगी, मुझसे बातचीत करने लगी और मुझसे अगले दिन का कार्यक्रम पूछा।

तो मैंने कहा- परसों मुझे देवास जाना है, इसलिए सोच नहीं पा रहा हूँ कि वापस घर जबलपुर चला जाऊँ या भोपाल में ही रुक जाऊँ।

तो वो बोली- आप भोपाल में ही रुक जाओ… मुझे आपकी मेजबानी करके ख़ुशी होगी।

मैंने भी सोचा कि इतना सफ़र बेकार में करने से अच्छा है, यहीं रुक जाता हूँ… जितना किराये में खर्च होगा, उतने में होटल ले लूँगा…

मैंने कहा- ठीक है..

यह सुन कर सुजाता जी के चेहरे पर हंसी आ गई… हाँ, उनका यही नाम था, सुजाता… कद 5’4′, गौर वर्ण, कंटीली आँखें, रसीले होंट, सुतवां नाक, सुराहीदार गर्दन, उन्नत और आकर्षक वक्ष और उभरे नितम्ब… कुल मिला कर महा-हाहाकारी व्यक्तित्व उनके सांचे में ढले जिस्म और नशीली आँखों को देख कर किसी के पप्पू मियाँ (मैं लण्डेश्वर जी महाराज को प्यार से पप्पू मियां कहता हूँ !) सलामी देने लगें…

वो मुझसे बोली- आप खाना कल हमारे घर पर खायेंगे।

मैंने कहा- ठीक है।

उन्होंने अपना पता देते हुए अगले दिल 11 बजे आने को कहा।

अगले दिन सही समय मैं तैयार होकर उनके घर पहुँच गया। सुजाता घर में एकदम अकेली थी, उन्होंने मेरा स्वागत किया।

मैंने पूछा- घर में कोई और नहीं है?

तो वे बोलीं- नहीं, मैं यहाँ अकेली ही रहती हूँ।

और फिर उन्होंने मेरे लिए एक थाली में खाना परोस दिया।

मैंने कहा- आप नहीं खाएँगी?

तो उन्होंने कहा- नहीं, आज मैं सिर्फ मलाई और राबड़ी का भोग लगाऊँगी।

यह कहते वक़्त उनके स्वर और आँखों में एक अजीब किस्म की शरारत नाच रही थी।

मैंने अपना भोजन खत्म किया तो उन्होंने मुझे दूसरे कमरे में आराम करने के लिए कहा…

मैं बिस्तर पर लेट गया… और वे मेरे पास बैठ गईं… मुझसे बात करने लगी !

सुजाता मुझसे बोली- ..क्या आप सचमुच अपने ही शेर में विश्वास रखते हैं?

मैंने कहा- किस शेर में..?

तो उन्होंने कहा- वही, बदन बदन से और लबों से लब मिलते हैं .. लोग प्यार में इससे ज्यादा कब मिलते हैं !

मैंने कहा- शायरी तो कवि के मन का दर्पण होती है, वो अपने दिल की बात ही अपनी कविताओं में लिखता है…

तो सुजाता बोली- ..मैं आपसे प्यार की इस हद पर आकर मिलना चाहती हूँ…

मैं अवाक रह गया, मगर तब तक सुजाता के होंट आगे बढ़कर मेरे होंटों को अपने आगोश में जकड़ चुके थे… मेरे बदन में सनसनी दौड़ गई, लहू ने शरीर में उबाल मारना शुरू कर दिया और पप्पू मियां जैसे अचानक नींद से जागे और अंगड़ाई लेने लगे।

और तब तक सुजाता ने मेरे हाथों को खींच कर अपने संतरे निचोड़ने के काम पर लगा दिया था। मेरी नाक सुजाता की सांसों की खुशबू से भर गई शरीर में एक अनोखा नशा सरगोशी करने लगा और जब तक मैं कुछ समझने लायक होता, मेरे सारे कपड़े मेरे शरीर का साथ छोड़ कर पलंग के एक कोने में पड़े थे।

तभी सुजाता उठी और बोली- ऐसे ही रहना, मैं एक मिनट में आई !

और जब वह वापस लौटी तो उनके हाथ में एक कटोरा रबड़ी और एक कटोरा मलाई का था।

वो मेरी तरफ मुस्कुराते हुए बोली- मेरा मलाई खाने का अपना स्टाइल है, मैं मलाई कभी इस चम्मच से नहीं उस चम्मच से खाती हूँ। उस चम्मच कहते वक़्त उन्होंने इक बड़ा अश्लील सा इशारा मेरे लंड की तरफ किया और कटोरे रख कर अपने कपड़े भी उतार दिए।

मेरी कमर के दोनों तरफ पैर निकाल कर वो मेरे सामने की तरफ बैठ गई और फिर जो उनके चुम्बन का दौर चालू हुआ कि मारे गुदगुदी के मेरी आह निकल गई।

यह मेरे लिए एक नया अनुभव था, कहाँ एक तरफ कामक्रीड़ा का वर्षों का अनुभव और कहाँ काम शास्त्र के पहले अद्ध्याय को समझने की संकोची चाहत !

मगर जो कुछ भी हो रहा था, था बहुत आनन्ददायक था।

चुम्बनों की इसी बौछार के बीच उन्होंने रबड़ी की कटोरी से कुछ रबड़ी मेरे चेहरे पर गिरा दी और अचानक उनके चेहरे पर जंगली बिल्ली सरीखी चमक आ गई, उन्होंने मेरे चेहरे पर लगी रबड़ी को चाटना शुरू कर दिया और थोड़ी सी रबड़ी मेरे सीने पर भी गिरा दी।

और अब उनकी शिकारी जीभ मेरे सीने पर रेंगने लगी। लेकिन मुझे कहाँ पता था कि उनका अगला निशान तो पप्पू मियां हैं, मैं अपने सीने को उनकी जीभ के कौशल से मुक्त कर पाता, तब तक पप्पू मियां रबड़ी से नहा चुके थे और जब तक मेरे समझ में कुछ आता, सुजाता बड़े ललचाये हुए अंदाज में रबड़ी से भीगे हुए पप्पू मियां को अपने मुख के हवाले कर चुकी थी।

यह अनुभव मेरे लिए नितांत नया था, मेरे शरीर से कंपकपी छूट गई, पप्पू मियां की तो जैसे किस्मत ही खुल गई थी, वे आनन्द के हिंडोले में कुलांचे भरते हुए मानो आसमान की सैर करने लगे थे।

अब आगे जो हुआ वो तो आप समझ ही गए होंगे, लिखने का क्या फ़ायदा !

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