तुझ को भुला ना पाऊँगा -1

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दोस्तो, आप सबको मेरा यानि दलबीर सिंह का नमस्कार! मैं अपनी नई कथा के साथ उपस्थित हूँ। काफ़ी दिन पहले मैंने मेरे पाठकों की कुछ कहानियाँ भेजी थीं जो आपके द्वारा काफ़ी सराही गईं और बहुत से पाठकों की मेल्स भी आई और फ़्रेंड रिक्वेस्ट भी! जब भी किसी कलाकार की कला को कोई सराहता है तो उस कलाकार का उत्साह बढ़ता है और यहाँ पर तो प्रोफेशनल लेखक शायद ही कोई हो वरना तो सब लोग अपना अपना अनुभव ही लिखते हैं।

दोस्तो, कहानी शुरू करने से पहले एक बात कहना चाहूँगा कि जो लोग वास्तव में कहानी पढ़ने का शौक रखते हैं उनको यह कहानी अच्छी लगेगी पर जो लोग सिर्फ़ सेक्स ही पढ़ना चाहते हैं शायद उन लोगों को यह कहानी उतनी अच्छी ना लगे।

घटना बहुत पुरानी है और जिसके बारे में यह कथा है उसका मेरे जीवन में एक विशेष महत्व है और उसके कारण मेरे वर्तमान जीवन पर भी बहुत प्रभाव है लेकिन वो थी ही ऐसी कि शायद मरते दम तक मैं उसे भुला नहीं पाऊँगा।

1984 के एक वर्ग विरोधी दंगों के बाद मेरे परिवार के लोग पंजाब शिफ्ट हो गये थे और मैं क्योंकि उस समय 11वीं में पढ़ता था, तो मैं और पिता जी दिल्ली में ही रहे और मेरी 12वीं की परीक्षा होने के बाद ही मैं पंजाब गया।

दोस्तो, आप जानते हैं कि जब कोई जमा-जमाया काम बंद करके नई जगह पर जाता है तो वहाँ काम भी धीरे धीरे ही चलता है। हमारा परिवार बड़ा होने के कारण हमें वहाँ पर कोई भी ऐसा मकान नहीं मिला जहाँ कि हम सारा परिजन एक साथ रह पाते तो हमें किराए पर 3 मकान लेने पड़े, बड़े भाई साहब निरंजन सिंह के मकान में थे और हमें मकान बाज़ार में मिला। हमारे घर से भाई साहब वाला मकान लगभग 7-8 मिनट की दूरी पर था। निरंजन सिंह का अपना टेंट का काम था और हम लोगों ने वहाँ जाकर अपना पुराना दवाई का काम शुरू किया था।

मैं उस वक्त एक साधारण से व्यक्तित्व का मालिक था परंतु मेरी मुस्कुराहट और मेरी आँखें बचपन से आकर्षक रही हैं। मैं शरीर से दुबला पतला था, क्योंकि पिछले कई साल से लंबी दौड़ का धावक था इस लिए शरीर दुबला होते हुए भी मज़बूत था और स्टेमिना काफ़ी अच्छा था और स्वाभाव से मैं थोड़ा शरारती और हँसमुख था इसलिए मेरे दोस्त जल्दी बन जाते थे और यह खूबी परमात्मा की कृपा से आज भी मुझ में है।

निरंजन सिंह की 4 बेटियाँ और 3 लड़के थे, बड़ी लड़की और बड़े लड़के की शादी हो चुकी थी, बीच वाला लड़का घर छोड़ कर निहंगों की टोली में शामिल हो गया था, बड़ा लड़का भी टेंट का काम करता था पर वो वहाँ से करीब 12-13 किलोमीटर दूर था और रहता भी वहीं पर था, छोटा लड़का रॉकी अपने पिता के साथ ही काम करता था।

उनकी छोटी लड़की लाडो और उससे बड़ी थी बिल्लो किशोरावस्था में थी, बहुत शरारती थी।

पर यह कहानी मेरी और दीपो की है जोकि बिल्कुल बीच की थी, 3 बहन भाई उससे बड़े और 3 ही उससे छोटे थे, वो भी बहुत हँसमुख थी। मैंने जब उसे पहली बार देखा तो मुझे तभी बहुत ज़ोर का झटका सा लगा पर मेरी कभी हिम्मत नहीं हुई कि मैं उसे इज़हार कर सकूँ। मैं यह तो महसूस करता था कि वो भी मुझे पसंद करती है पर कभी मौका नहीं मिला कि मैं उससे अपने दिल की बात कह पाता। पर वक्त ज्यों ज्यों गुज़र रहा था, मेरी बेकरारी बढ़ती जा रही थी।

ऐसे ही 2 साल गुज़र गये, मेरे भाई साहब के भी 3 बेटे हैं जिन्हें मैं बहुत प्यार करता था, आज भी करता हूँ पर इस इश्क वाले मामले के बाद तो मेरे चक्कर उस घर में कुछ ज़्यादा ही लगने लगे। मुझे लगता था कि वो भी समझ रही है पर फिर भी पहल करने में मेरी फटती थी।

इसी इंतज़ार में 1988 आ पहुँचा, उन दिनों पूरे भारत में बाढ़ आई हुई थी और हमारे इलाक़े में भी सरकारी मुनादी हो गई कि सतलुज नदी ख़तरे के निशन से ऊपर हो गई है और हमारे यहाँ पर भी बाढ़ आ सकती है। जहाँ पर हमारा घर था वो इलाक़ा कुछ निचली सतह पर था और निरंजन अंकल का घर थोड़े ऊँचे एरिया में था तो दीपो ने अपनी माँ से कह कर हमारे यहाँ कहलवाया कि हम उनके यहाँ पर आ जाएँ मेरी माँ ने भी हाँ कह दिया और हम घर का बहुत ज़रूरी सामान लेकर उनके घर चले गये।

पिताजी उस टाइम ब्यास गये हुए थे। इलाक़े की बिजली काट दी जाने वाली थी तो मैंने ये सोचा कि इस बाढ़ के चक्कर में तो बोर हो जाऊँगा इस लिए मैंने 3-4 नावलों का जुगाड़ कर लिया।

जिस दिन हम उनके घर पहुँचे, उसी रात को हमारे यहाँ भी पानी आ गया यानि कि बाढ़ आ गई। हम अपने घर का सामान पहले ही ईंटें वग़ैरह रख कर कर उँचा करके रख आए थे।

अब क्योंकि दिन रात उनके घर में रहना था तो दीपो भी मेरे आस-पास ही रहने लगी और मैं जैसे ही नावल रखता तो वो उठा कर ले जाती, तो यह देख मैंने रिस्क लेने की ठान ली।

उस दिन यह सोचने के बाद मैंने अपना इरादा पक्का कर लिया और उससे नावल लेने के बाद मैंने जिस पेज पर उसकी निशानी थी, उस पेज पर मैंने लिख दिया- ‘D, I L U’ और नावल वापस रख दिया। अब यह तो पक्का था ही कि दीपो वो नावल लेकर जाएगी तो मेरे सोचे अनुसार ही लगभग एक घंटे बाद जब वो घर के काम से फ्री हुई तो नावल उठा कर ले गई। अब मैं एक तरफ तो उत्साहित था कि मैंने इज़हारे मौहब्बत कर दिया है और दूसरी तरफ फट भी रही थी कि कहीं वो किसी से कह ना दे।

उसने नावल मुझे शाम को लौटा दिया और उसमें एक छोटी सी पर्ची रखी थी जिस पर लिखा था कि ऐसे नहीं लिखना चाहिए था, अगर किसी को पता चल जाता तो क्या होता?

यह पढ़कर मैं तो मानो सातवें आसमान पर पहुँच गया, क्योंकि मेरी समझ में आ गया था कि उसने हाँ तो नहीं कहा पर फिर उसकी इस बात का मतलब एक तरह से हाँ ही है। मैंने उसी पर्ची के पीछे लिख दिया ‘किसी को कैसे पता लगता जब हमारे अलावा किसी और को नावल का शौक ही नहीं है।’ और यहाँ फिर से इसके नीचे मैंने लिख दिया DEEPO I LOVE YOU!

वो शाम पूरी गुज़र गई पर दोबारा उसकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया, मैं काफ़ी इंतज़ार करता रहा पर मेरा इंतज़ार व्यर्थ ही गया।आप लोगों में से कई लोग ऐसी स्थिति से गुज़रे होंगे आप समझ सकते हैं कि मेरा क्या हाल हुआ होगा। पूरी रात नींद नहीं आई, अगर थोड़ी देर को आँख लग भी जाती तो फिर खुल जाती, सारी रात ऐसे ही कटी और सुबह जल्दी उठ गया था पर आँखों में जलन हो रही थी।

सुबह दीपो भी जल्दी उठ जाती थी, उसने उठ कर चाय बनाई तो गिलास में डाल कर मुझे दे दी पर मैंने कहा- मैं तो चाय तब पियूँगा जब तुम इसमें से पहले एक घूँट भरोगी। उसने काफ़ी मना करा पर आख़िर में उसने एक घूँट भर ही ली।

अब मेरा तो खुशी के मारे कोई ठिकाना ही नहीं था और मुझे उसकी तरफ से हरी झंडी मिल गई थी। ऐसे बाढ़ के चक्कर में पूरा डेढ़ हफ़्ता निकल गया। पर इस डेढ़ हफ्ते में मैं उसे ढंग से छू भी नहीं पाया था, कारण यह था कि उनके घर पर हमारे अलावा भी दो परिवार और थे किरायेदार।

फिर धीरे धीरे पानी उतरने लगा और लगभग 12 दिन उनके घर रहने के बाद हम अपने घर आ गये पर मेरा दिल उसी में रहने लगा। अब हमारे बीच में चिट्ठियों का आदान प्रदान होने लगा पर खुले आम चिट्ठी किसी के सामने नहीं दी जा सकती थी तो हमने एक जगह निश्चित करी, वो जगह थी लेटरीन और बाथरूम के बीच में बना हुआ रोशनदान, मैं चिट्ठी वहाँ रख कर उसे इशारे में बता देता और वो भी चिठ्ठी वहीं पर रख देती।

इस प्रकार करीब एक साल और निकल गया और मैं उससे शादी के सपने देखने लगा। मैंने यह बात भाभी जी के माध्यम से भाई साहब को कहलवाई, उन्होंने उसके पिताजी से बात भी करी पर उसके पिता जी ने जातिवादी सोच के कारण मना कर दिया क्योंकि हम जट्ट हैं और उनकी जाति दूसरी थी। हालाँकि हमारा परिवार जातिवाद को नहीं मानता पर वो लोग मानते थे तो उसके पिताजी नहीं माने।

इस पर हमारे बीच में प्यार और ज़्यादा बढ़ गया और मैंने उसका नाम प्यार से रखा ‘मनप्रीत’ और उसने मुझे प्यार से अमरजोत कहना शुरू कर दिया।

अब जब हमें पता लग गया था कि हमारा मिलन नहीं हो सकता तो हमारे बीच में प्यार और ज़्यादा बढ़ गया, और हम जब तब मिलने का मौका ढूँढते रहते थे। जब भी मौका मिलता हम एक दूसरे को ज़रूर मिलते और तब तक हमारे बीच में सेक्स जैसी कोई इच्छा नहीं होती थी।

जनवरी 89 में हमें पता चला कि उसके पापा उसके लिए रिश्ता ढूँढ रहे हैं, तो मनप्रीत ने मुझे कहा- अमरजोत, चलो हम भाग चलते हैं! तो मैंने उसे कहा- अगर हम भाग गये तो हम तो अपना घर बसा लेंगे, पर इससे 2 घर बर्बाद होंगे और माँ बाप की जो बदनामी होगी उसका क्या? उनकी बरसों की बनी हुई इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी और फिर कल को हमारी रिश्तेदारी कहाँ होगी? मैंने कहा- जान मोहब्बत सिर्फ़ हासिल करने का नाम नहीं है बल्कि मौहब्बत कई बार कुर्बानी भी मांगती है। यह बात मनप्रीत की समझ में आ गई और उसने भागने की बात ख़त्म कर दी।

ये सब उसको समझा कर मैं अपने घर आ गया और छत पर जा कर बहुत देर तक रोता रहा, जब रोते रोते आँखों का पानी सूख गया तो मैं छत से उतर कर आया और दुकान पर चला गया। कहानी जारी रहेगी। [email protected]

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