तुझ को भुला ना पाऊँगा -2

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मैंने कहा- जान मोहब्बत सिर्फ़ हासिल करने का नाम नहीं है बल्कि मौहब्बत कई बार कुर्बानी भी मांगती है। यह बात मनप्रीत की समझ में आ गई और उसने भागने की बात ख़त्म कर दी। ये सब उसको समझा कर मैं अपने घर आ गया और छत पर जा कर बहुत देर तक रोता रहा, जब रोते रोते आँखों का पानी सूख गया तो मैं छत से उतर कर आया और दुकान पर चला गया।

तीन महीने ऐसे ही गुज़र गए और इस बीच में एक रात मैं पूरी रात उसके साथ उसके कमरे में रहा। पूरी रात उसके पास रहने का मौका भी ऐसे बना कि उसके मम्मी पापा को शादी के कार्ड बाँटने के लिए जाना था और उन्हें रिश्तेदारी में रात रुकना था जो कि उसने मुझे पहले ही बता दिया था।

जिस दिन उसके माँ पापा को जाना था, उस दिन रात अपने घर पर आने के लिए दीपो ने मुझसे कह दिया और कहा कि चोरी से आना। शाम को मैंने भी अपनी मम्मी से कह दिया कि आज मुझे कुक्कु (मेरे एक दोस्त) के घर रुकना है उसके घर वाले घर पर नहीं हैं। तो मुझे माँ से इजाज़त मिल गई और मैं बहुत ही खुश था, कुक्कु को भी मैंने सारा कुछ पहले ही बता दिया था, ताकि मौका पड़ने पर वो बात को संभाल सके क्योंकि वो मेरे किस्से के बारे में जानता था।

रात करीब 9 बजे मैं उसके घर पहुँचा तो उसने घर का पीछे वाला दरवाज़ा खुला छोड़ रखा था। हमारा मिलने का टाइम तो पहले से ही निर्धारित था तो वह भी मेरा इंतज़ार कर रही थी और अपनी छोटी बहनों को खाना खिला कर छत पर सुला आई थी। जब मैं उसके दरवाज़े पर पहुँचा तो मेरे मन में हज़ारों सवाल थे और डर भी, कि कहीं वो ना आई तो किसी ने देख लिया तो? किसी को पता लग गया तो? और भी ना जाने कितने सवाल पर जब इश्क की आग लगी होती है तो इंसान को और कुछ सूझता नहीं है, वही हाल मेरा भी था।

उनके घर जा कर दरवाज़े को मैंने हल्का सा बजाया कि कहीं कोई दरवाज़ा बजाने की आवाज़ ना सुन ले पर जैसे ही मैंने बजाया तो दरवाज़ा अंदर को खुल गया और मैं अंदर घुस गया, अंदर की बत्ती बंद थी और मेरे दिल की धड़कन इतनी तेज़ थी कि मुझे अपने दिल के धड़कने की आवाज़ अपने कानों में सुनाई दे रही थी और साँस ऐसे चल रही थी कि जैसे मैं कोई बहुत लंबी रेस दौड़ कर आ रहा होऊँ।

जैसे ही मैं अंदर घुसा, वो फुसफुसाई- दरवाज़ा बंद कर दो। और जैसे ही मैंने दरवाज़े की कुण्डी लगाई वो एकदम से मुझ से लिपट गई और मुझे भी और कुछ नहीं सूझा मैंने उसे अपनी बाहों में भर लिया और अपने सीने से लगा कर खड़ा हो गया।

मेरे दिल की धड़कन बहुत तेज़ हो चुकी थी और सांस भी ऐसे था जैसे मैं दौड़ कर आया हूँ। जहाँ मैं खड़ा था बिल्कुल वहीं पर एक पलंग भी पड़ा था, उसने मुझे पीछे को धक्का दिया, मैं पीछे की ओर पलंग पर बैठ गया, वो मुझसे लिपटी हुई वहीं मेरे सामने खड़ी थी और मेरे हाथ उसकी कमर से लिपटे हुए थे और उसकी बाहें मेरे गले में थीं और हम ऐसे लिपटे हुए थे कि जैसे अब कभी अलग नहीं होंगे। काफ़ी देर बाद मेरे मुँह से निकला- ओ प्रीत, यह रात यहीं रुक जाए और हम कभी अलग नहीं हों।

वो मुझे प्यार से अमरजोत बुलाती थी और मैं उसे प्यार से मनप्रीत कहता था मेरी बात के जवाब में उसने एक गहरा लंबा साँस लिया और बोली- अमर मेरी जान, चाहती तो मैं भी यही हूँ पर काश कि ऐसा हो पाता! और यह कह कर वो रोने लगी और मैंने उसे अपने सीने से और ज़ोर से भींच लिया और उसे चुप करने लगा। उसका दर्द देख कर मेरी भी आँखें गीली हो गईं पर धीरे धीरे वो शांत हो गई और हम लोग आपस में लिपट कर पलंग पर लेट गये। कुछ देर बाद हम एक दूसरे के मुँह से मुँह मिलाकर चुम्बन करने लगे, कभी मेरी जीभ उसके मुँह में चली जाती और कभी उसकी जीभ मेरे मुँह में आ जाती।

और पता नहीं कितनी देर तक तक हम दोनों यही करते रहे। काफ़ी देर बाद जब जीभ और होंठ थक गये और दर्द करने लगे तब हम हटे। मेरे हाथ उसके शरीर पर जहाँ तहाँ फिर रहे थे, वो मेरा कोई विरोध नहीं कर रही थी। इसके बाद मैंने अपने हाथ उसके कुर्ते में डाल दिए और मैंने तब देखा कि उसने अंदर ब्रा नहीं पहन रखी थी। मैं धीरे धीरे उसके स्तनों को सहलाने लगा उसके छोटे छोटे निप्प्ल एक दम से कड़क और टाइट हो गये थे और उसके मौसमी के आकार के स्तनों का साइज़ भी उत्तेजना के मारे बढ़ गया था।

पर जैसे ही मैं अपने हाथ उसकी सलवार के नाड़े की ओर ले गया, उसने मुझे रोक दिया और बोली- नहीं अमर, अगर मुझसे प्यार करते हो तो यह नहीं करो। मैं भी रुक गया और दोबारा से चुम्मा-चाटी करके उसे गर्म करने की कोशिश करने लगा।

सारी रात मैं उसके पास रहा पर उसने मुझे अपनी सीमा से आगे नहीं बढ़ने दिया जब भी मैं उसकी निर्धारित सीमा को पार करने की कोशिश करता, वो मुझे रोक देती।

उस उम्र में मुझे उसकी वो हरकत और मुझे बार बार रोकना बचकनी हरकत लग रही थी और बहुत से पाठक भी कहेंगे कि यह लेखक तो चूतिया है। पर आज जब मैं एक परिपक्व आदमी बन चुका हूँ अब उसके आत्म नियंत्रण की कल्पना करता हूँ तो उसका सम्मान मेरी नज़र में और भी बढ़ जाता है।

जब सुबह के 4.30 बज गये तो मैंने उसे कहा- प्रीत, मेरी प्रीत अब मुझे चलना चाहिए, वर्ना थोड़ी देर में रोशनी हो जाएगी तो मुझे यहाँ से निकलते हुए कोई देख लेगा। तब वो बोली- अमर, जिस चीज़ की कोशिश तुमने सारी रात करी, मैं भी वो करना चाहती हूँ पर अभी उसका वक्त नहीं है, मैं तुम्हारी यह इच्छा भी ज़रूर पूरी करूँगी क्योंकि मुझे मालूम है कि तुम मुझे जीवन में कभी नहीं मिलोगे और मैं पराई हो जाऊँगी तो मुझे जीवन जब भी तुम्हारा सहारा चाहिए होगा, मैं उन पलों को याद करके अपना जीवन गुजार लूंगी और तुम्हारी मौज़ूदगी का एहसास हमेशा अपने दिल में सॅंजो कर रखूँगी।

उसने ये शब्द ऐसे अंदाज़ में और भावुकतापूर्वक कहे कि मैं भी रो पड़ा। पर मैंने उसे यह महसूस नहीं होने दिया कि मैं रो रहा हूँ और मैंने उसे एक बार और गले से लगाया और वहाँ से निकल आया।

उसके बाद 2-3 दिन तक मैं उसके घर नहीं गया क्योंकि जब भी मैं उसके घर जाने के बारे में सोचता तो मेरा मन भारी हो जाता और मैं उदास हो जाता था।

एक दिन उसने मेरे भतीजे के हाथ एक चिट्ठी भेजी जिसमें लिखा था- ‘मैं उस रात के लिए शर्मिंदा हूँ और मैंने तुम्हें कुछ करने नहीं दिया, इसीलिए तुम मुझसे नाराज़ हो ना?’

यह पढ़ कर मुझे बहुत शर्म आई कि वो मुझे कैसा समझती है। मैंने भतीजे को थोड़ी देर बच्चों के साथ खेलने दिया और और एक चिट्ठी लिखी जिसमें अपने दिल का सारा हाल लिखा और भतीजे को मिठाई खिलाई और उसी के हाथ वो चिट्ठी भेज दी।

उसी दिन शाम को भाभी के घर गया और भाभी से कह कर उसे बुलवा लिया। भाई साहब और भाभी को हमारे बारे में मैंने बता ही दिया था पर मैं उस रात उसके घर आया था और पूरी रात वहाँ रुका था, यह बात मैंने छुपा ली थी।

वो वहाँ आई तो मेरे मुँह से सिर्फ़ इतना निकला- ‘मनप्रीत, तू मुझे ग़लत समझी… मैं नाराज़ नहीं हूँ, बस तेरे सामने आने की हिम्मत नहीं है क्योंकि तू मुझे देख कर और दुःखी हो जाएगी।

यह कहते कहते मेरा गला भर गया और मैं उससे और कुछ नहीं कह पाया और वो भी मुझसे लिपट कर रोने लगी, बड़ी मुश्किल से उसे चुप कराया और समझाया कि मैं नाराज़ नहीं हूँ।

समय बहुत तेज़ी से गुज़र रहा था… या यूँ कह लें कि हमें लगा रहा था कि समय की गति बढ़ गई है। आख़िर वो दिन भी आ गया जिस दिन उसकी शादी थी। वो दिन 7 जून 1989 का दिन मैं कभी भी नहीं भूल सकूँगा जिस दिन उसकी शादी थी, मैं भी उस शादी में शामिल हुआ पर बार बार मेरा रोना सा निकल जाता था और आँखें गीली हो जाती थीं। लेकिन मैं फेरे होने के बाद वहाँ से अपने एक दोस्त के घर चला गया और उसके कमरे में बैठ कर फूट फूट कर रोया। पर कोई चारा नहीं था, समाज का विरोध कर पाने की हिम्मत नहीं थी, तो रो कर ही सब्र करना पड़ा।

उसके बाद वो जब भी आती तो मुझे मिलने के लिए बुलाती पर मैं क्योंकि उसके जीवन मे कोई विघ्न नहीं चाहता था तो मैं उससे मिलने नहीं जाता था। कहानी जारी रहेगी। [email protected]

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