गलतफहमी-10

दोस्तो, कहानी धीरे-धीरे अपने पूरे शवाब पर पहुंचेगी, बस आप कहानी के साथ बने रहिये, अभी बहुत से रहस्यों से पर्दा उठना बाकी है।

अभी तनु भाभी जिसकी शादी से पहले का नाम कविता झा था, मुझे अपने बचपन से लेकर अब तक की कहानी पूरे विस्तार से बता रही है। अभी वो अपनी किशोरावस्था की कहानी बता रही है। जब वो आठवीं में थी तब वो लोग स्कूल टूर पर गये थे, और अभी वो उसी के बारे में बता रही है। टूर में उसकी बहन की सहेली का भाई रोहन भी जा रहा था।

कविता ने आगे बताते हुए कहा: हमारा स्कूल दसवीं तक था और आठवीं के नीचे क्लास वालों को टूर में जाने की इजाजत नहीं थी, तो जाहिर है कि टूर में हम नौ लोगों के अलावा बाकी सब बड़े ही थे। मैं खिड़की वाली सीट चाहती थी, तो मेरे साथ एक टीचर आकर बैठ गई। अब यार..! मैं उनसे बात ही क्या करती, मैं बोर होने लगी। गनीमत तो यह है कि बाबूजी को काम था इसलिए वो टूर पर नहीं आये और मुझे टूर की इजाजत भी इसीलिए मिली थी कि वो इस टूर पर खुद भी आने वाले थे। खैर उनके नहीं आने से मुझे अकेले घूमने फैसला लेने, और चीजों को समझने का मौका तो था, पर अभी मुझे सीट बदलनी थी, मैंने इशारे से अपनी क्लास की एक लड़की को सीट बदलने के लिए राजी किया। तो वो मान गई और मेरी सीट पर आ गई। पर उसकी सीट जिसमें मुझे बैठना था वो खिड़की की तरफ नहीं थी बल्कि अंदर की तरफ थी। मैं उसमें बैठ तो गई पर खिड़की की तरफ बैठी लड़की से बहाना करने लगी.. बहन तू इधर आ ना, मुझे यहाँ बन नहीं रहा है।

यह बात मेरी बगल वाली सीट पर बैठा सीनियर सुन रहा था, उसका नाम गौरव था, उसने कहा ‘वहाँ नहीं बन रहा है तो मेरी गोद में आ जाओ।’ उसने ये बात ऐसे कही कि कोई टीचर ना सुने। मैंने मुंह बनाया और नाखून दिखाते हुए उसे इशारों में कहा कि टीचर से शिकायत कर दूँगी. उसने कान पकड़ा और सॉरी कहा. ये सब देख खिड़की वाली लड़की ने मुझे जगह दे दी और मैं वहाँ बैठ कर सोचने लगी कि वो मुझे क्यों छेड़ रहा था। खैर जो भी हो, उसके छेड़ने से मुझे गुस्सा तो आया था पर उसका छेड़ना मुझे अच्छा भी लगा था, तो क्या मैं जवान हो रही थी..?? पर अभी तो मैं सिर्फ आठवीं में थी..! मैं ऐसे ही सीट पर टिक कर सो गई। कोई गप्पे हाँक रहा था, तो कुछ लोग अंताक्षरी खेल रहे थे, वैसे इन सब में मैं भी पीछे नहीं रहती पर मुझे बस में मतली सी आती है तो मैंने शांत रहकर सोना ठीक समझा।

अब एक जगह बस रुकी, तो मेरी नींद खुली, सब चाय नाश्ता के लिए उतर रहे थे, टीचर के दो बार कहने पर मैं भी नीचे आई, मेरा सर रात की अधूरी नींद की वजह से दुख रहा था, हमें टूर पे निकलने के लिए सुबह पांच बजे का समय दिया गया था और तैयारी करने के लिए दो घंटे पहले उठना पड़ा, और टूर पर जाने की खुशी के चलते किस किशोरी को नींद आयेगी। मैंने भी रात करवट बदल-बदल कर काटी थी। इसीलिए तो सही जगह पर बैठते ही मेरी नींद लग गई थी। पर अभी उन्हीं कारणों से सर भी दुख रहा था इसलिए मैंने बस से उतरते ही माथा पकड़ लिया, तभी कानों में जानी पहचानी मीठी सी आवाज आई ‘कविता तुम ठीक तो हो ना..! मैं पानी लाऊं?’ वो रोहन था, आज तक वो मुझसे अच्छे से बात नहीं कर पाया था, पर आज उसने मुझसे बात करने की हिम्मत कहाँ से जुटाई मैं नहीं जानती पर उसका ये पूछना मुझे अच्छा लगा। मैंने उसे कहा.. मैं ठीक हूँ..! तुम चिंता मत करो। और फिर मैं सहेलियों के पास जाकर बैठ गई।

रोहन मुझसे कुछ दूरी बना कर मुझे फालो करता रहा। वो ज्यादातर अपने एक-दो दोस्त के साथ ही रहता था, मैंने उसे कभी ज्यादा यारी-दोस्ती में नहीं देखा था, वैसे मैंने कभी उस पर ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया था।

अब हम सब चाय नाश्ता करके बस में चढ़े, मैंने फिर अपनी वही खिड़की वाली सीट पकड़ ली। इस बार मैंने अपने साथ अपनी सहेली को बिठा लिया। पर खिड़की के पास बैठने से धूप सीधे चेहरे पर आ रही थी। ठंड का मौसम था तो सुबह के दस बजे तक धूप अच्छी लगी, पर अभी ग्यारह बज रहे थे, तो मुझे धूप से परेशानी होने लगी। पर मैं जानती थी कि यह सीट छोड़ने के बाद मुझे दुबारा नहीं मिलेगी सो मैंने चेहरे पर रुमाल ढक लिया और सोने की कोशिश करने लगी।

इस बार मेरी पीछे वाली सीट पर रोहन आकर बैठ गया था, मैंने उसे बैठते वक्त देखा था। सभी अपने-अपने में लगे थे, एक कुंवारी टीचर को एक सर लाईन मार रहे थे, ये सब मैं उस समय अच्छे से नहीं समझती थी, पर ज्यादा रुझान किसी की ओर हो तो समझ आ ही जाता है। मैंने अपने चेहरे पर रुमाल ढकने से पहले अंतिम दृश्य उनको इशारा करते हुए ही देखा था। और मैं रुमाल ढक के मुस्कुराते हुए सोने लगी.

कुछ समय बाद मुझे मौसम में परिवर्तन महसूस हुआ, शायद बदली आ गई थी, और अब चेहरे पर सूरज की गर्मी का अहसास कम हो रहा था। अब तक सभी के गर्म कपड़े निकल चुके थे, मैंने भी स्वेटर निकाल कर रख दिया था। मैं अचेत होने जैसी मुद्रा में.. चैन से सोते रही.. फिर एक जोर का झटका लगा, क्योंकि गाड़ी ब्रेकर में जोरों से उछली थी, मेरी भी नींद खुल गई, मेरा रुमाल सरक कर गोद में गिर गया था। खिड़की से तेज रोशनी भी आ रही थी। फिर मैंने सोचा कि मुझे तो बदली जैसा अहसास हो रहा था..! क्या मैं इतनी तेज रोशनी में भी सोती रही..?? वैसे ठंड के दिनों में धूप अच्छी ही लगती है पर आपको सोना हो और धूप सीधे आपके चेहरे पर पड़े तब ठंड की धूप भी नहीं सुहाती। फिर मैंने आंखें मलते हुए नजर दौड़ाई.. तभी मेरी नजर खिड़की और सीट के बीच सिमट कर फंसे न्यूज पेपर पर पड़ी, शायद वो पीछे से आया था। मेरे मन में पता नहीं क्या आया कि मैंने सीट से पलटते हुए आधे ही खड़े होकर रोहन से पूछा.. रोहन ये पेपर तुमने लगाया था ना..! मुझे धूप से बचाने के लिए..! रोहन ने लड़खड़ाती जुबान से.. नननहीं तो मैंने नहीं लगाया था कह दिया। मुझे कुछ समझ नहीं आया और मैं फिर बैठ गई। पर मुझे यह पेपर का रहस्य परेशान कर रहा था।

मुझे सोये हुए करीब दो घंटे हो गये थे और मेरे उठने के आधे घंटे बाद गाड़ी एक ढाबे के सामने रुकी। सभी खाना खाने उतरे। मैंने अपनी सहेली जिसका नाम प्रेरणा था, को पूछा- तू सच बता क्या बदली आई थी..? या किसी ने पेपर से छाया की थी? वो कुछ भी बोलने से बच रही थी, पर मैंने उसे अपनी दोस्ती की कसम दी तो उसने बताया.. यार तू जितने समय से सोई थी उतने समय तक रोहन ने पेपर अपने हाथ से पकड़ कर तुझे छांव में रखा था, दो घण्टों में उसके हाथ भी अकड़ गये होंगे पर उसने पेपर नहीं हटाया और मुझे भी कुछ बताने से मना किया था।

मैं उसकी अच्छाई देखकर स्तब्ध रह गई। फिर मेरे अहंकार ने मेरे दिमाग पर कब्जा कर लिया और मैंने हंसते हुए ‘डरपोक कहीं का’ कहा। तो प्रेरणा ने कहा.. कविता.. ये भी तो हो सकता है कि वो अपने किये का श्रेय नहीं लेना चाहता हो, बस नेकी किया और भूल गया। उसकी बातों ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया। अब मैं उसकी अच्छाईयों से प्रभावित होने लगी पर अभी भी मैंने उसकी शक्ल सूरत के कारण ज्यादा ध्यान नहीं दिया।

सब खाना खाकर बस में चढ़ गये सबने अपनी-अपनी सीट पकड़ ली। पर मेरे मन में रोहन के अहसान का बोझ था, मैं उसे धन्यवाद देना चाहती थी, पर उसने तो मना ही कर दिया था कि उसने कुछ किया भी है। इसलिए मैंने सोचा कि क्यूं ना उसकी सीट पर बैठ कर ही उससे बात करूं। और मैं फिर अपनी सीट पर आधे खड़े होकर पीछे मुड़ कर रोहन के दोस्त विशाल को अपनी सीट पर आने के लिए कहा. यह सुनकर रोहन का चेहरा घबराया सा लगा पर उसके दोस्त ने हाँ कह दी क्योंकि फायदा तो उसे भी होने वाला था, उसे भी तो मेरी सहेली प्रेरणा के साथ बैठने का मौका मिल रहा था। प्रेरणा मेरी जितनी तो नहीं पर थी वो भी बहुत सुंदर।

मैं खिड़की वाली सीट से निकली, वहाँ सरक कर प्रेरणा बैठ गई, उसके बगल में विशाल बैठ गया, पर मुझे तो फिर खिड़की वाली सीट ही चाहिए थी, तो मैं रोहन को पार करके वहाँ जा रही थी, लेकिन बस के हिलने डुलने की वजह से मैं रोहन की गोद में गिरे जैसे बैठ गई, और कुछ ही पलों में उठ कर खिड़की वाली सीट पर बैठ गई, लेकिन इतने कम समय की घटना के बावजूद उस सीनियर गौरव ने फिर से कह दिया.. गोद में ही बैठना था तो हमारी गोद में कौन से कांटे लगे थे। मैंने ऊपर से ही चिढ़ते हुए कहा- चुप रहो नहीं तो ठीक नहीं होगा।

वैसे मेरे मन में उसकी बातों को सुनकर थोड़ी खुशी की लहर पैदा हुई थी क्योंकि कोई भी किशोरी जल्द से जल्द जवान होना चाहती है और उसकी बातों ने मुझे जवानी का अहसास कराया था। फिर वो बड़बड़ाया कि हम तो चुप ही हैं.. और कर भी क्या सकते हैं। हमारे आजू-बाजू की सीटों तक ही हमारी इस नोंकझोंक का पता चला। सब दो मिनट खामोश रहे फिर अपने-अपने में मस्त हो गये।

रोहन की आंखों में क्रोध की ज्वाला स्पष्ट नजर आई। पर मैंने जैसे ही उसे प्यार से ह्ह्हहैल्ल्लो कहा.. उसकी आंखों में शीतलता तैरने लगी।

सामने की सीट पर विशाल और प्रेरणा लगातार बातों में लगे थे, और उनसे उलट मैं और रोहन हाय हैलो के बाद खामोश बैठे रहे। अभी शाम का वक्त था तो खिड़की के बाहर रास्तों के खूबसूरत नजारों को देखते हुए सोचते रही कि रोहन कुछ बात करे तो मैं भी कुछ बोलूं। पर वो तो बस की ऐंट्री गेट की तरफ मुंह करके खामोश बैठा रहा।

ठंड का दिन था तो शाम होते-होते सभी अपने-अपने गर्म कपड़े पहनने लगे, मैंने सुबह वाली अपनी स्वेटर पहन ली.. घर पे ये स्वेटर गर्मी दिलाने के लिए काफी होता था, पर सफर में स्वेटर के बावजूद मुझे ठंड़ का अहसास हो रहा था। मैं रात के और गहराने पर कंबल निकाल के ओढ़ लूंगी सोच कर ऐसे ही सो गई और रोहन ने एक बड़ा सा कंबलनुमा शाल ओढ़ लिया। प्रेरणा और विशाल ने भी हमारी नकल की।

हमारी बस लगभग रात के आठ बजे, फिर एक ढाबे पर रुकी.. कुछ ने खाना खाया, कुछ ने चाय बिस्किट खाई, और कुछ पानी पी कर ही वापस चढ़ गये। मैं और रोहन ने केवल चाय पी.

अब तक सब अपने-अपने तरीकों से रहने और बात करने लगे थे, मतलब कि सहेली या दोस्त के साथ ही चिपके रहो ऐसा जरूरी नहीं था। तो मैं और रोहन बस में वापस चढ़ गये, वैसे रोहन मेरे साथ खुलकर नहीं रह पा रहा था, पर मुझे उसके व्यवहार के कारण सुरक्षित होने का अहसास हो रहा था। और जब एक लड़की खुद को किसी के साथ सुरक्षित महसूस करती है तब उन दोनों को पास आने में वक्त नहीं लगता, ये मंत्र सभी को याद रखना चाहिए।

अभी बस पर हमारे अलावा एक दो लोग ही और थे, इसलिए मैंने सीट पर बैठते ही बेझिझक रोहन की तरफ मुंह करते हुए हाथ आगे बढ़ाया और थैंक्स कहा.. रोहन थोड़ा अचरज की मुद्रा में था, उसने हाथ भी नहीं बढ़ाया, कहा.. किस बात के लिए थैंक्स? अब मैंने हक जताते हुए कहा- मैं जानती हूँ यार कि मुझे छाँव देने के लिए, तुमने ही पेपर पकड़े रखा था। रोहन ने फिर मना कर दिया- मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है! मैंने कहा- मैं सब जान गई हूँ। अब तुम बनो मत.. खैर चलो वो तुमने ना किया तो ना सही.. पर हम दोस्त तो बन सकते हैं ना, क्या अब भी हाथ नहीं मिलाओगे? तब उसने हाथ आगे बढ़ाया और हाथ मिलाते हुए उसने मुझसे एक वादा भी किया- ठीक है आज से हम अच्छे दोस्त हुए… इसका मतलब यह हुआ कि अब तुम्हारी किसी भी प्राब्लम को मुझसे होकर गुजरनी पडेगा। मैंने फिर थैंक्स कहा और दोनों ने एक मुस्कान के साथ हाथ छोड़ा।

अब तक बस में सभी चढ़ गये थे और पहले जैसे ही सीटों पर विराजमान हो गये। सभी का हंसी मजाक अंताक्षरी और गपशप का दौर एक बार फिर शुरु हो गया। पर मैं सीट पर टिक कर एक ही बात सोचती रही… कि रोहन के हाथों का स्पर्श इतना सुकून देने वाला क्यों था, जबकि वो काला बदसूरत सा लड़का है। मैंने पहले भी तो कइ लड़कों से हाथ मिलाये हैं, तो इस बार क्या अनोखी बात थी, जो मैंने उन हाथों की पकड़ अपने हाथों में उम्रभर के लिये पानी चाही। क्या रोहन भी यही महसूस कर रहा होगा.. इसी उधेड़बुन में कब मेरी नींद पड़ी मुझे पता ही नहीं चला।

मैं शायद नींद में भी मुस्कुराती रही, मुझे कुछ पा लेने जैसा अहसास हो रहा था। तभी मेरे कानों से एक तेज ध्वनि टकराई- चलो उठो.. जल्दी उठो.. सुबह के छ: बज गये हैं.. अब झांसी केवल डेढ़ घंटे की दूरी पर है। हम सब मेरे रिश्तेदार की सब्जी बाड़ी में बैठकर नाश्ता करेंगे, और यहीं से झांसी जाकर सीधे घूमने निकलेंगे। लेकिन उससे पहले पास की नदी में नहा कर आयेंगे। पानी भी साफ है और प्रकृति का भी पूरा आनंद उठाना है। सभी अपने बैगों से नहाने के कपड़े निकाल कर साथ रख लें।

यह आवाज एक सर की थी, यहाँ पर उनकी बहन का ससुराल था, हम मेन रोड से एक कि.मी. अंदर आये थे, और सर ने उनकी बाड़ी में पकौड़ों का इंतजाम कराया था। सर की आवाज से जब मैं नींद से जागी तब देखा कि मैं तो रोहन के कंधे पर सर रख के सोई हूँ और रोहन की शाल भी मैंने ही ओढ़ रखी है, रोहन मुंह से कोहरे निकलने वाली ठंड में बिना गर्म कपड़ों के ऐसा ही बैठा है। वहीं सामने की सीट पर प्रेरणा और विशाल एक ही शाल को दोनों ओढ़े हुए सोये थे, इसका मतलब यह है कि रोहन भी मेरे साथ ये शाल ओढ़ सकता था, पर उसने ऐसा नहीं किया। मैंने अब उसे थैंक्स नहीं कहा क्योंकि थैंक्स शब्द उसके त्याग के लिए बहुत ही छोटे थे।

हम सबने नहाने के कपड़े साथ लिए और बस से उतर कर सर के पीछे-पीछे चल पड़े, कुछ दूरी तय करके हम एक बाड़ी में पहुंचे, सर वहाँ किसी व्यक्ति से मिल रहे थे, शायद वो ही उनके रिश्तेदार थे। अब उनके रिश्तेदार ने हमें रास्ता दिखाया, रास्ता थोड़ा उबड़ खाबड़ था, वातावरण पहाड़ियों जैसा अहसास करा रहा था, बस पांच मिनट में ही नदी नजर आने लगी, वहाँ से कोहरा उठ रहा था और हरे-भरे पेड़ पौधों में समाहित होता जा रहा था। सच में अनुपम दृश्य था।

फिर नदी से ही कुछ दूरी पर हमनें साथ रखी दरी बिछाई और सर ने सबको घेरा बनाकर खड़े किया। फिर उनके रिश्तेदार ने सबका अभिवादन करते हुए बताया कि यह बड़ी नदी नहीं है, छोटा नाला है इसलिए खतरे वाली कोई बात नहीं है। आप लोग अगर पहले भी नाले में नहाये होंगे तो अच्छी बात है। और अगर नहीं भी नहाये होंगे तो आपका यह पहला अनुभव मजेदार ही होगा।

हम सब कस्बे से थे तो हम में से अधिकांश ने कभी ना कभी नदी तलाब में नहाने का मजा तो लिया ही था।

अब सर ने कहा कि पहले लड़कियां, शिक्षिकाओं के साथ जाकर, नहा के आयेंगी उसके बाद लड़के हमारे साथ जायेंगे। तब तक कोई भी लड़का उस तरफ नहीं जायेगा, यहीं बैठे रहेंगे और जब लड़के नहाने जायेंगे तब यही बात लड़कियों के लिए भी लागू होगी।

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